Book Title: Nandanvan Kalpataru 2003 00 SrNo 09
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ श्रीअभिनन्दनदेववन्दना - ४ चैत्यवन्दनम् अभिनन्दन ! चन्दनसरस - शीतलवाणिविलास ! । नन्दनवनसुमनोव्रजैः पूजित ! पुण्योल्लास ! । संवरनन्दन ! वन्दनां, तव चरणे सृजताम् । सङ्क्रन्दनपदसम्पदाऽपि, सुलभा भवति सताम् सिद्धार्थासुत! पुरवरा - योध्यानृप ! सिद्धार्थ ! । मधुरं धर मे शिवफलं कपिलाञ्छन ! शुभसार्थ ! Jain Education International स्तवनम् राग - आशाउरि 'जिन तव नयनयुगलमतिहारि ; निरवधिसुषमाजितसकलोपम - ममृतहूदोपममविकारि । जिन तव... यच्छोभानिर्जितमथ कमलं, तपस्तपस्यति श्रितवारि । चनतो हरिणस्तव वदनरिपु - मिन्दुं श्रितवान् खेचारी सहजाञ्जनमञ्जुलमेतत् खलु, खञ्जनमदभञ्जनकारि । तेनोच्छिन्नछविश्च चकोरो, भक्षत्यग्निं दुःखभारी मीनयुगलमिव तरलं मधुकर - समश्यामलताराहारि । अस्य सुभगतां कथये कियतीं, मुग्धा सकलामरनारी ८ ॥१॥ For Private & Personal Use Only રા ॥१॥ जिन तव ... ॥२॥ जिन तव .... ॥३॥ जिन तव ... www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154