Book Title: Nandanvan Kalpataru 2003 00 SrNo 09
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 46
________________ - . दारिद्र्यं दुर्गतिदुर्भाग्ये, दुष्टा दृष्टिर्नष्टा जी। सुमति-सुगति-समताः सौभाग्यं, तव दर्शनतः सृष्टा । जिनवर ! जयकारिन् !॥४॥ अनुपमसाम्यसदनमथ वदनं, धवलविभावलिकलितं जी । शारदपूर्णशशीव सृजति मम, हृदयोदधिमुलसितम् । जिनवर ! जयकारिन् ! ॥५॥ निरुपमरूपसुधा तव तनुजा, नयनपुटैरनिमेषं जी । पायं पायमपीश ! मनो मे, तृष्णां वहति विशेषम् । जिनवर ! जयकारिन् ! ॥६॥ कोटिकोटिसूर्यादपि समधिक - तेजोवलयलसन्ती जी। तव मूर्तिस्फूर्तिर्भुवि जयति, विघ्नसमूहहरन्ती । जिनवर ! जयकारिन् ! ॥७॥ मधुरं चरितं मधुरा करुणा, मधुरं स्मरणं ध्यानं जी। सकलं मधुरं धरता देयं, शाश्वतमधुरं स्थानम् । जिनवर ! जयकारिन् ! ॥ हरतां भवभयपीडां, भविनां भयहारिन् ! ॥८॥ इत्थं स्तुतो विमलशैलशिखाग्रसंस्थः श्रीशान्तिनाथभगवान् करुणानिधानः । देयाच्छिवं स्मृतिकूतां शमिताशिचौघः श्रीविश्वसेननृपवंशधुरन्धरो नः ॥॥ स्तुतिः सरस्साम्यसुधारससारणिः, सकलवाञ्छितपूर्तिमरुन्मणिः । जयति शान्तिजिनेशवपुर्विभा, सकमला कमलाकरसलिभा ॥१६॥ ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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