Book Title: Nandanvan Kalpataru 2003 00 SrNo 09
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ श्रीकुन्थुनाथदेववन्दना - १७ चैत्यवन्दनम् कल्पितकल्पनकल्पवृक्ष! कुन्थुजिनेश्वरदेव! । निष्कामा मुनयः सदा, ध्यायन्ति त्वामेव ॥१॥ शूरनराधिपनन्दनो, गजपुरनगरीभानुः । श्रीदेवीतनयो जयतु, तनुभासुरसानुः ॥२॥ भरतभूमिभूमीपते ! लाञ्छनवरछाग ! सदा धुरन्धर शमवतां, जय जय जितराग ! ॥३॥ स्तवनम् राग- वीरजिणंद जगत उपगारी कुन्थजिनेश्वर ! कामितपूरण -कल्पतरूपममहिमा जी । त्रिभुवनमध्ये केषांचिदपि, तव सदृक्षा नहि मा जी ॥१॥ कुन्थु... चक्रवर्तिसमृद्धिभोगी, तदपि ख्यातोडभोगी जी। योगीश्वरवृन्दैयेयोऽपि, विदितो भुवनेऽयोगी जी ॥२॥ कुन्थु.. सर्वथैव निष्परिग्रहोऽपि, भुवनेश्वरताभागी जी , वीतरागताशिरवरस्थोऽपि, स्वात्मरमणतारागी जी ॥३॥ कुन्थु.. सर्वाधिकसौभाग्यो जगति, त्वं विहरस्येकाकी जी। अर्चत्यमरगणोऽपि भवन्तं, मर्यं पुण्यविपाकी जी ॥४॥ कुन्थु.. ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154