Book Title: Nandanvan Kalpataru 2003 00 SrNo 09
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ Jain Education International सम्यक्त्वरूपपरमौषधमन्तरेण नंक्ष्यन्त्यमी नियमतो गुरुकर्मरोगात् । सम्पादनेऽत्र खलु तस्य परं विभाषा कालक्षमाश्च पितरो व्यवहारदृष्ट्या ॥" एवं विचार्य स पितॄनिहलोक योग्यनिर्वाहसाधनयुतान् विधिवद्विधाय । सम्यक्त्वमुख्यपरमौषधलाभहेतोः स्वश्रेयसे च वरसद्गुरुमाश्रयेत ॥ इत्थं विधाय सकलं करणीयकृत्यं त्यक्त्वा कुटुम्बमभिनिष्क्रममाण एषः । सम्प्राप्य सिद्धिमथ तान् प्रतिबोधयंश्च सत्यं भवेत् स्वजनवर्गमहोपकारी ॥ अत्याग एष किल तत्त्वविभावनेन तत्त्याग एव फलितोऽत्यजने तु मौढ्यात् । यत्तात्त्विकं हि फलमत्र मतं प्रधानमासन्नभव्यशुचिधीरजनैस्तु दृष्टम् ॥ सद्दर्शनादिकवरौषधदानतः स मृत्युप्रचाररहितस्थितिबीजयोगात् । संस्थापयेदिति च शाश्वतजीचने तानेतत्सुसम्भवमतः पुरुषानुरूपम् ॥ ६१ For Private & Personal Use Only २५ २६ २७ २८ २९ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154