Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 9
________________ भूमिका कपनको विद्वान् लोग समझने लगें। यह सुन देवीने कहा कि-आधी रातमें गीले बसको मस्तकपर रखना तथा मट्ठा पीना, जिससे कफवाहुल्य होकर जाड्यवृद्धि होनेपर तुम्हारे कथनको लोग समझने लगेंगे। श्रीहर्षने वैसा ही किया और उनके कथनको विदान् लोग समझने लगे। तदनन्तर इन्होंने 'खण्डनखण्डखाच' आदि अनेक ग्रन्योंकी रचना की, जैसा कि नैषधचरितके चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ, सप्तम, नवम, द्वादश, सप्तदश तथा अष्टादश सर्गों के अन्तमें क्रमशः स्थैर्य विचारप्रकरण, श्रीविजयप्रशस्ति, खण्डनखण्डखाथ, गौडोवीशकुलप्रशस्ति, अर्णववर्णन, नवसाहसाङ्कचरित, छिन्दप्रशस्ति तथा शिवशक्तिसिद्धि प्रन्थों के नामोंका इन्होंने स्वयमेव उल्लेख किया है। इस प्रकार अनेक ग्रन्थों की रचना कर मीहर्ष कन्नौजके अधिपतिके यहाँ पहुँचे। उनका आगमन सुनकर विदद्गुणग्राही राजाने मन्त्री, सभापण्डित आदिके साथ नगरके बाहर जाकर उनकी अगवानी करके यथोचित सस्कार किया। राजाको गुणिप्रियतासे अतिशय हर्षित श्रीहर्षने राजा की स्तुति करते हुए यह लोक पढ़ा'गोविन्दनन्दनतया च वपुश्रिया च माऽस्मिन्नुपे कुरुत कामधियं तरुण्यः / अस्वीकरोति जगतां विषये स्मरः स्त्रीरस्त्री जनः पुनरनेन विधीयते श्रीः॥' और उच्चस्तरसे विस्तृत व्याख्यान किया। यह सुन इनकी विद्वत्तासे समस्त समासदोंके सहित राजा अत्यन्त सन्तुष्ट हो गये। तदनन्तर श्रीहर्षने अपने पिताके विजेता उदयनाचार्यको लक्ष्य कर कटाक्ष करते हुए यह श्लोक पढ़ा 'साहित्ये सुकुम रवस्तुनि दृढन्यायग्रहप्रन्थिले तकें वा मयि संविधातरि सम लीलायते भारती। शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाङ्कुरेरास्तृता भूमिर्वा हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतियोषिताम् // यह सुन श्रीहीरविजयी पण्डित ने उनके प्रखर पाण्डित्यको देखकर कहा कि-'भारतीसिर वादिगजकेसरी विददर ! आपके समान कोई मी विद्वान् नहीं है, फिर अधिक कहाँसे हो सकता है क्योंकि 'हिंस्राः सन्ति सहस्रशोऽपि विपिने शौण्डीर्यवीर्योद्धतास्तस्यैकस्य पुनः स्तुवीम ह महः सिंहस्य विश्वोत्तरम् / केलिः कोलकुलैर्मदो मदकलैः कोलाहलं नाहले संहर्षों महिषैश्च यस्य मुमुचे साहकृते हुकृते // ' यह सुनकर श्रोहर्षका क्रोध शान्त हो गया। राजाने मी 'श्रीहीर' विजयी पण्डितकृत मवसरोचित श्रीहर्ष-स्तुति की श्लाघा करते हुए दोनों विद्वानोंमें परस्पर स्नेहपूर्वक मागिन कराकर राजमवनमें ले जाकर दोनोंका ही समुचित सरकार किया और श्रीहर्षको एक लक्ष सुवर्णमुद्राएँ दी।

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