Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 8
________________ भूमिका नामका नगर ही श्रीहर्षकविको माताका निवासस्थान और उसी भाषारपर इनका नाम 'मामल्लदेवो' हुमा। 'श्रीहीर' बहुत ही विशिष्ट विद्वान् थे। ये काशीके राजा 'विजयचन्द्र' की राजसमाक प्रधान पण्डित थे। कहा जाता है कि इनको राजाके समक्ष एक पण्डितने शाखार्थमें पराजित किया / उक्त पण्डितके नामके विषयमें एकमत न होनेपर मी 'चाण्डू' पण्डितकी स्वकृत टीकाके आरम्भमें लिखी गयो-'प्रथमं तावकविर्जिगीषुकथायां स्वपितृपरिभावुक मुदयनमत्यमर्षणतया कटाक्षयंस्तग्रन्थग्रन्थीनुग्रन्थयितुं खण्डनं प्रारिमुभतुर्विधपुरुषार्थरभिमानमनवधीयमानमवधीर्यमानसमेकतानता निनाय / ' पहियोंसे मोहपके पिता 'श्रीहोर' को पराजित करने वाले मैषिक नैयायिक प्रसिय विद्वान् 'उदयनाचार्य हो थे, इसमें सन्देहका कोई स्थान नहीं रहता। अस्तु, राजसमामें पराषित 'पोहोर' ने सुपुत्र श्रीहर्षसे कहा कि 'पुत्र ! यदि तुम सुपुत्र हो तो मेरे विजेताको पराजित कर मेरा मनस्ताप दूर करना।' 'श्रीहर्ष' ने भी पिताकी आशाको शिरोधार्य कर सदगुरसे तक, न्याय, भ्याकरण, ज्योतिष, वेदान्तादिदर्शन, योगशाला एवं मन्त्रशासका सम्यक् प्रकारसे अध्ययन कर 'चिन्तामणि' मन्त्रका अनन्यमनस्क हो एक तक जप करनेसे प्रत्यक्ष हुई त्रिपुरादेवीके वरदानसे ऐसी विद्वत्ता प्राप्त की कि इनके कयनको कोई विद्वान् समझ ही नहीं पाता था। यह देख श्रीहने आराधनासे त्रिपुरादेवीका पुनः साक्षात्कार कर कहा किमातः! आपके वरप्रसादसे प्राप्त मेरा प्रखरतम पाण्डित्य भी सदोष ही रहा, क्योंकि मेरे कथनको कोई विद्वान् समझता ही नहीं, अत एव ऐसा वरदान दीजिये जिससे मेरे 1. 'चिन्तामणि' मन्त्रका स्वरूप यह है'अवामावामार्द्ध सकलमुभयाकारघटनाद् विधाभूतं रूपं भगवदभिधेयं भवति यत् / तदन्तर्मन्त्रं मे स्मरहरमयं सेन्दुममलं निराकारं शश्वजप नरपते! सिरयतु सते॥' (1485) 2. 'चिन्तामणि' मन्त्रका महत्व कविने स्वयं इन शब्दों में कहा है 'सर्वाङ्गीणरसामृतस्तिमितया वाचा स वाचस्पतिः स स्वर्गीयमृगीरशामपि वशीकाराय मारायते / यस्मै यः स्पृहयत्यनेन स तदेवामोति किं भूयसा येनायं हृदये कृतः सुकृतिना मन्मन्त्रचिन्तामणिः॥ पुष्पैरभ्यर्च्य गन्धादिभिरपि सुभगैश्चारु हंसेन माञ्चेनिर्यान्ती मन्त्रमृति जपति मयि मतिं न्यस्य मय्येव भक्तः। सम्प्राप्त वत्सरान्ते शिरसि करमसौ यस्य कस्यापि धत्ते सोऽपि श्लोकानकाण्डे रचयिति रुचिरान कौतुकं दृश्यमस्य // ' (1485-87)

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