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आक्रमण के शिकार हो गये। यही कारण है कि डेरागाजीखान क आगे के भाग में दिगम्बर जैनौ कि बस्तिया नहीं के बराबर मिलती है । इसलिये यह कहना कि मुलतान मे ओसवाल जैन बारहवी शताब्दी मे आकर बसे, सत्य प्रतीत नहीं होता।
मुलतानवासी दिगम्बर जैनो मे धार्मिक जाग्रति, आध्यात्मिकता, के प्रति प्रेम प्रेम एव दिगम्वरत्व के प्रति कट्टरता रही है । वहा के प्राचीन किले मे मन्दिर होना तथा उसमे सवत 1481, 1502 एव 1548 की मूर्तिया उपलब्ध होना तथा 1548 वाली मूर्ति के चमत्कारो की कहानी इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि मुलतान मे दिगम्वर धर्म के अनुयायी अच्छी सख्या मे थे और केवल ओसवाल जाति के थे। महाकवि बनारसीदास की अध्यात्मिक लहर का सबसे अधिक स्वागत मृलतान के दिगम्बर जैन समाज ने किया । आगरा के जैन समाज की तरह वहा भी आध्यात्मिक शैली स्थापित की गयी। जिसमे समयसार नाटक, प्रवचनसार जैसे ग्रन्थो का स्वाध्याय एव उस पर चर्चा होने लगी। प० नाथूराम प्रेमी ने भी लिखा है कि "मुलतान शहर आध्यात्मिक था जो वनारसीदास के अनयायियो का प्रमुख स्थान रहा है । यहा के ओसवाल श्रीमाल इसी मत के अनुयायी रहे है ।" "लेकिन हमारी मान्यता यह है कि यहा के ओसवाल परिवार दिगम्बर जैन थे। उस समय मे मुलतान में विहार करने वाले श्वेताम्बर साधु भी आध्यात्मिक बन गये थे तथा दिगम्बर ओसवाल भाईयो के साथ बैठकर आध्यात्मिक चर्चा किया करते थे।
बनारसीदास का समय सवत 1700 के पूर्व का रहा है। सवत 1693 में उन्होने समयसार नाटक को पूर्ण किया और उसके पूर्ण होते ही सारे देश में इसका स्वाध्याय होने लगा । आगरा से वह लहर एक ओर मुलतान को भी पार कर डेरागाजीखान तक पहुची तो दूसरी ओर आमेर, सागानेर कामा मे अध्यात्म शैली स्थापित की गयी। फिर क्या था । सारे मुलतानी फिर चाहे वे दिगम्बर ओसवाल हो या श्वेताम्बर, अध्यात्म रस के रसिक बन गये । श्वेताम्बर साधुओ ने भी समयसार नाटक बनारसी विलास जैसे ग्रन्थो की प्रतिलिपिया करके उनके प्रचार प्रसार मे वहुत योग दिया । बनारसीदास के समय में ही लिखी हुए एक तारातबोल की पत्रिका मिलती है जिसमे मुलतान निवासी ५० बनारसीदास खत्री ने देश देशान्तरो की यात्रा की ओर वहा से वापिस आने पर उसने अपनी यात्रा का जैसा वृतान्त सुनाया वैसा ही पविका मे लिपिवद्ध कर दिया गया। पत्रिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है । सवत 1714 की समयमार नाटक की प्रतिलिपि मुलतान दिगम्बर जैन मन्दिर आदर्श नगर मे संग्रहित है । उस समय श्रावक चाहडमल, नवलखा वर्द्धमान, करमचन्द, जेठमल, ऋपभदास आदि अनेक दिगम्बर श्रावक अध्यात्म रस के रसिक बन गये थे और सवत 1722 में उन्ही के आग्रह से प्रबोध चिन्तामणि चौपाई एव योगशास्त्र चौपाई की रचना की गयी थी।
वर्धमान नवलखा
मुलतान मे अनेक विद्वान भी थे। इनमे वर्धमान नवलखा का नाम उल्लेखनीय है। ये पाहिराज के पुत्र थे तथा वर्धमान के साथ साथ वत भी उनका नाम था। ये ओनवाल
• मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक मे