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और गुरुद्वारे इसे अर्वाचीन मोहनजोदडो की श्रणी मे बैठाये हैं। अतीत मे यदि श्रमणो की नागरिक सस्कृति को प्रकृति के प्रकोप ने भूतल मे छिपा लिया था, तो आज धार्मिक उन्माद मे साम्प्रदायिक राज्य के थपेडो मे पड़ कर मूलस्थान, अपनी विपाण मुद्रा मे ही अपनी बीती सारी करुण कथा कह रहा है। भारत-विभाजन के समय
मुलतान से आये श्रमण (जैन) ब्राह्मण (वैदिक) संस्कृति के पालक भारतीय आज हमे उस हजारो वर्ष पुराने जन-अर्जन (माइग्रेशन) का जीताजागता उदाहरण दिखाते हैं जो 5-7 हजार वर्ष पहिले श्रमणो (द्रविडो) ने सिन्ध के प्रवल धार मे पडकर किया होगा अथवा डेढ हजार वर्ष पूर्व विध्वसक एवं वर्वर मुस्लिम आक्रमण के बाद ही इसे दिया होगा। इतना ही नहीं गगा-क्षेत्र के हरिद्वार, कान्यकुब्ज, प्रयाग और वाराणसी के समान सिन्धु क्षेत्र का मुलतान भी भारत की उन नगरियो मे रहा है जिन्होने भारतीय इतिहास के प्रत्येक युग मे सवल-कर्म भूमिका निभायी है । श्रमण या जैन संस्कृति की दृष्टि से मुलतान की मौलिकता अद्वितीय है।
जातियो की दृष्टि से ओसवाल जाति के अधिकतम लोग सारे भारत मे जिनसम्प्रदायी (श्वेताम्बर) ही हैं । मुलतान और आसपास का जैन समाज राजाश्रय प्राप्त श्वेताम्बरत्व की वाढ से भी अछूता रहा था। जिन सम्प्रदाय रूपी मरुस्थल मे भी मुलतान और उसका अचल दिगम्बरत्व की शस्यस्थली (ओइसिस) या जिनधर्मी (दिगम्वर) ही था और हजारो वर्ष बीत जाने पर भी विशुद्ध दिगम्बर रहा । अल्पसत्यक होने से जहा जहां अनेक हीनताये या हानिया होती हैं वही एक वडा लाभ भी होता है। बहुसख्यको का अनागत भय अल्पसख्यकों को सुसगठित और पुरुषार्थी बनाये रखता है तथा बहुसंख्यक भी अपवाद-भीरुता के कारण अल्पसंख्यको का अधिक ख्याल रखते हैं । पंजाव तथा सीमान्त प्रदेश मे गैरमुस्लिमो को भी न्यूनाधिक वे सुविधायें सुलभ थी जो आज के भारत मे मुसलमानो को अतिसुलभ हैं । यही कारण था कि मुलतान-डेरागाजीखान, आदि के दिगम्बर ओसवालो को अपनी विरादरी मे विशेष मान था तथा इनके जिनकल्पी (दिगम्बर) रूप को श्वेताम्बर जैन भी सम्मान से देखते और उत्कृष्ट मानते थे। साधर्मी वात्सल्य
मलतान डेरागाजीखान आदि के जैनियो मे ऐसा माधर्मी प्रेम था जिसकी दसरी मिसाल खोजना कठिन है । यहा पर रक और राजा, धनी-निर्धन, सबल-दुबल और शिक्षित-अशिक्षित साधर्मी परस्पर मे ऐसा व्यवहार रखते थे कि हीन को कभी अपनी हीनता का आभास भी नहीं होता था । लक्षाधीश क्या कोटयाधीश भी अपनी वेटी अपने ही मुनीम के बच्चे को ब्याह देता था । अर्थात् "रोटी" की समता के सिवा "वेटी" के व्यवहार मे भी उत्कृष्ट समता थी । साधर्मी का सामाजिक, धार्मिक, आथिक स्थितिकरण समता आदि तो मुलतान अचल के दिगम्बरो के लिये रोजमर्रा के कार्य थे।
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• मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक में