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बारह भावना यह अमोलक बाई की अच्छी कृति है जिसमे प्रत्येक भावना का अलग वर्णन किया गया है । बाई जी जगत से सर्वथा उदासीन हो चुकी थी इसीलिये प्रत्येक भावना के वर्णन मे कवयित्री ने अपना हृदय खोलकर ही रख दिया है। भापा बहुत सरल एव मधुर है । कही-कही कवयित्री ने अपना परिचय देते हुए "वर्द्धमान जी पडित विचारी तास सुता गुण गावे" पक्तिया लिखी हैं।
बारह भावनाओ के अन्त मे अमोलका बाई ने महाकवि बनारसीदास एव पडित राजमल को ज्ञानदाता के रूप में स्मरण किया है तथा अपने पिता वर्द्धमान को धर्मसन्त की उपाधि दी है जिसने स्वाध्याय की प्रेरणा दी तथा सस्कृत का ज्ञान कराया। शुद्ध सरूपे परनये ते परमातम जान । प्रातमभावना हूँ नमूभाव भगति उर पान ॥१॥ जिनवाणी सरसुति नमू, बिजिये सास्वति माय ।
भविक लोक में हित बनी जयवन्तो जग माहि ॥२॥ गुरुजन चरण कमल नमू, तिन मुझ कियोरे प्रकाश ।
प्रातम मुझ संतोषियो, अमृत वचन रसाय ॥३॥ मै बालक मतिहीन हूं वेद नहीं मुझ पास । बारह भावन भायसां पडित करें न हास ॥४॥ रस मई रचना कविकला, ते नाहीं मुझ शुद्ध । सीमन्धर परसादतै प्रगटी निर्मल बुद्ध ॥५॥ चंचलता मनते हरो, संकलप विकलप दूर । ध्यान निरंजन प्रातमा, ते आपा भरपूर ॥६॥ दान शील जप तप किया, कर कर नाना भेय ।
प्रातम शुद्ध प्रगटयो नही, किम संसार तिरेय ॥७॥
अनित्य भावना ये तो जिनवर प्राज्ञा लेवोरे प्राणी पहली भावना भाय, नित्य सदा ए सासतारे अविनाशी अविकार, निश्चय नयकरि प्रातमा रे भेद नहीं लगार ॥१॥ प्राणी पहली भावना भाय । ये संसार सदा सासता रे दरबित नय करि जानि । परजाय नय तै परिनमै, ऐसी जिनवर वानि ॥२॥ प्राणी पहली भावना माय । माता पिता सुत कामिनी रे परिजन सो परिवार, करम उदय प्रावी मिला रे अन्त होय सब छांड ॥३॥ प्रारणो पहली भावना भाय । परिग्रह दस परकार नी रे, वल नोकर्म शरीर, छिन २ आवे छोजतो रे, जैसे अंजलि नीर ॥४॥ प्राणी पहली भावना भाय।
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• मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक मे