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अपरंच पत्र 1 तुम्हारो भाईजी श्री रामसिंघजी भवानीदासजी को आया था तिसके समाचार जहानावादतें और साम्मियोंने लिखे थे सो भाईजी ऐसे प्रश्न तुम सारिखे ही लिखे । अवार वर्तमान काल मे अध्यात्मके रसिक बहुत थोडे हैं । धन्य है जे स्वात्मानुभवको बार्ता भी करै है, सौ ही कहा है -
तत्प्रतिप्रीतचित्त न, तस्य वार्तापि हि श्रुता।
निश्चित स भवेद् भव्यो, भावनिर्वाणभाजनं ॥ अर्थ-जिहि जीव प्रसन्न चितकरि इस चेतनस्वरूप आत्मा की बात भी सुनी सो जीव निश्चय कर भव्य है। अल्प काल विपे मोक्ष का पात्र है। सी भाई जी तुम प्रश्न लिखे तिस कर मेरी बुद्धि अनुसार कुछ लिखिए है सो जानना । और अध्यातम आगम की चर्चा गभित पत्र तो शोघ्र देवों करो। मिलाप कभी होगा तब होगा। और निरन्तर स्वरूपानुभव मे रहना। श्रीरस्तु ।
अर्थ स्वानुभव दशा विप प्रत्यक्ष परोक्षादिक प्रश्ननिके उत्तर बुद्धि अनुसार लिखिये हैं।
तहां प्रथम ही से स्वानुभवका स्वरूप जानने निमित लिखिये हैं।
जीव पदार्थ अनादितें मिथ्यादृप्टी है सो आपापर के यथार्थरूप विपरीत श्रद्धानका नाम मिथ्यात्व है। वहुरि जिस काल किसी जीव के दर्शन मोहके उपशम, क्षयोपशमतै आपापरका यथार्थ श्रद्धान रूप तत्वार्थ श्रद्धान होय, तब जीव सम्यक्ती होय हैं। याते आपापरका श्रद्धान विषै शुद्धात्म महान रूप निश्चय सम्यक्त गभित है। बहुरि जो आपापरका श्रद्धान नहीं है और जिनमत विषे कहे जे देव, गुरु, धर्म तिनको ही माने है, अन्य गत मत विषै कहे देवादिक वा तत्वादिक तिन जिनको नही माने है तो ऐसे केवल व्यवहार सम्यक्त करि सम्यक्ती नाम पावे नाही। ताले स्वपर भेदविज्ञान को लिये जो तस्वार्थ श्रद्धान होय सो सम्यक्त जानना।
बहरि ऐसा सम्यक्तो होते सते जो ज्ञान पचेन्द्री, पाच इन्द्री छटा मनके द्वारा, क्षयोपशमरूप मिथ्यात्व दशा में कुमति, कुश्रुति रूप होय रहा था सोई ज्ञान अब मति श्रतिरूप सम्यज्ञान भया। सम्यक्ती जेता कुछ जाने सो जानना सर्व सम्यग्ज्ञान रूप हैं।
जो कदाचित घट पटादिक पदार्थनकू अयथार्थं भी जानें तो वह आवरण जनित उदयको अज्ञान भाव है सो क्षयोपशम रूप प्रकटज्ञान है सो तो सर्व सम्यगज्ञान ही है। जात जानने विष विपरीत रूप पदार्थनको न साधे है । सो यह सम्यग्रज्ञान केवल ज्ञान का अश हैं। जैने थोडासा मेघपटल विलय भयै कछ प्रकाश प्रकट है सौ सर्व प्रकाशक अश है ।
जो ज्ञान मति श्रुतिरूप प्रवर्ते है सौ ही ज्ञान वधिता-वधिता केवलज्ञान रूप होय है। तातें सम्यग्रज्ञान की अपेक्षा तो जाति एक है। वहरि इस सम्यक्ती के परिणाम विष सविकल्प तथा निविकल्परूप होय दो प्रकार प्रवर्ते तहा जो विषय कषायादिरूप वा पूजा, दान शास्त्राभ्यासादिक रूप प्रवत है सो सविकल्परुप जानना यहां प्रश्न .
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• मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक मे