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सरकार ने उक्त माग स्वीकार करते हुए सन् 1953 मे अनुमानतया 2000 वर्गगज भूमि मन्दिर निर्माण हेतु आवंटित कर दी ।
मन्दिर निर्माण की ओर
मन्दिर के लिए जमीन आवंटित होते ही श्रीमान कवरभानजी, दासूरामजी, खडारामजी घनश्यामदासजी, निहालचन्दजी, राजारामजी, न्यामतरामजी व माधोदासजी आदि समाज के प्रमुख महानुभावो ने मन्दिर निर्माण की योजना बनाई, फलस्वरूप सर्वप्रथम सोलह हजार रुपयो की स्वीकृतिया प्राप्त हुई और ज्येष्ठ सुदी पचमी (श्रत पचमी) सन् 1954 के शुभ दिन जयपुर के प्रसिद्ध जौहरी श्रीमान सेठ गोपीचन्दजी ठोलिया के कर कमलो द्वारा पंडित श्री चैनसुखदासजी़ न्यायतीर्थ के सान्निध्य मे बडे उत्साह उल्लास के साथ पडित गुलावचन्दजी शास्त्री के द्वारा विधि विधान पूर्वक मन्दिर का शिलान्यास किया गया ।
श्रीमान कवरभानजी की देखरेख मे निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ, नीव भरी गई, चुनाई प्लथ लेवल तक आ पाई थी कि लगभग 11000/- रुपया खर्च हो गये अत आर्थिक कठिनाई सामने आने लगी, इसके अतिरिक्त और भी कई बाधाए दिखाई देने लगी । इन सव कठिनाईयो को ध्यान मे,रखते हुए, समाज के कार्यकर्ताओ ने पूरी मुलतान दिगम्बर जैन समाज जयपुर एव दिल्ली का ध्यान इस ओर आकर्षित करने, आर्थिक सहयोग प्राप्त करने तथा निर्माण कार्य सुचारु रूप से चलाने के लिये श्रीमान आसानन्दजी बगवानी दिल्ली को निर्माण कार्य का सचालक मनोनीत किया जिसे उन्होने समाज के पूर्ण महयोग के आश्वासन पर सहर्ष स्वीकार करते हुए निर्माण कार्य को आगे बढाने की योजना बनाने हेतु श्री घनश्याम दासजी, श्री न्यामंतरामजी व मत्री श्री जयकुमारजी को पूर्ण सहयोगी के रूप मे साथ लिया । निर्माण कार्य पुन प्रारम्भ हुआ, साथ ही धनराशि एकत्रित करने के लिये कई योजनाए बनाई गई, फलस्वरूप आवश्यकतानुसार क्रमश रुपया भी आने लगा और निर्माण कार्य छत-लेवल तक पहुच गया ।
हाल की चौडाई अधिक होने, बीच मे कोई पिलर नही होने एव छत को नीचे की ओर प्लेन रखने की इच्छा के कारण यहा के वास्तुकारो ने छत डालने मे असमर्थता व्यक्त की, तब श्री आसानन्दजी दिल्ली से श्रीमान पलसिहजी जैन आर्चीटेक्ट को जयपुर लाए और उन्होने छत का डिजाइन तैयार किया। थोडे दिन वाद अपनी देखरेख मे छत डलवाई, इस तरह मन्दिर निर्माण कार्य का एक चरण पूरा हुआ ।
छत पड जाने के पश्चात् यह सुझाव आया कि सबसे पहिले मन्दिर मे वेदी बनवा कर जिन - प्रतिमाओ को विराजमान किया जाय, जिससे कि साधर्मी भाई मन्दिर मे आकर दर्शन पूजन 'आदि कार्य करेंगे तथा मन्दिर के अधूरे निर्माण कार्य को दृष्टिगत रखते हुए इसे शीघ्र ही पूरा करने मे सक्रिय योगदान देंगे । यह बात समाज को उचित प्रतीत हुई तथा सभी ओर से वेदी बनवाने की चर्चाएं होने लगी जिस पर श्री श्रीनिवासजी शकरलालजी के
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● मुलतान दिगम्बर जैन समाज इतिहास के आलोक मे