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धर्म की ही दृष्टि से महत्त्व वाली हैं, अपितु समुच्चय भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है ।
साहित्योपासना की दृष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान् यति मुनि वड़े उदारचेता मालूम देते हैं । इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र केवल अपने धर्म या सम्प्रदाय को बाड़ से बद्ध नहीं है । वे जैन और जनेतर वाङ्मय को समान भाव से अध्ययन अध्यापन करते रहे हैं । व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तक के अगणित अजैन ग्रन्थों का उन्होंने बड़े आदर से आकलन किया है और इन विषयों के अनेक अर्जुन ग्रन्थों पर उन्होंने अपनी पाण्डित्यपूर्ण टीकायें आदि रच कर तत्तद् ग्रन्थों और विषयों के अध्ययन कार्य में बड़ा उपयुक्त साहित्य तैयार किया है । खरतरगच्छ के गौरव को प्रदर्शित करने वाली ये सब बातें हम यहां पर बहुत ही संक्षेप में, केवल सूत्ररूप से, उल्लिखित कर रहे हैं । विशेषहम "युगप्रधा चाचार्य गुर्वावलि" नाम से विस्तृत पुरातन पट्टालो प्रकट कर चुके हैं उनमें इन जिनेश्वरसूरि से आरंभ कर, श्रीजिनवल्लभसूरि की परम्परा के खरतरगच्छीय आचार्य श्रीजितपूरि के पट्टाभिषिक्त होने के समय तक का विक्रम संवत् १४०० के लगभग का बहुत विस्तृत और प्राय: विश्वस्त ऐतिहासिक वर्णन दिया हुआ है । उसके अध्ययन से पाठकों को खरतरगच्छ के तत्कालीन गौरव गाथा का अच्छा परिचय मिल सकेगा ।
इस तरह पीछे से बहुत प्रसिद्धिप्राप्त उक्त खरतरगच्छ के अतिरिक्त, जिनेश्वरसूरि की शिष्य परम्परा में से अन्य भी कई एक छोटे-बड़े गण-गच्छ प्रचलित हुए और उनमें भी कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध विद्वान, ग्रन्थकार, व्याख्यातिक, वादा, तपस्वी, चमत्कारी साधु-यति हुए जिन्होंने अपने व्यक्तित्व से जैन समाज को समुन्नत करने में उत्तम योग दिया ।
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जिनेश्वरसूरि के जीवन का अन्य यतिजनों पर प्रभाव
जिनेश्वरसूरि के प्रबल पाण्डित्य और उत्कृष्ट चरित्र का प्रभाव इस तरह न केवल उनके निजके शिष्य समूह में ही प्रसारित हुजा, अपितु तत्कालीन अन्यान्य गच्छ एवं यति समुदाय के भी बड़े-बड़े व्यक्तित्वशाली यतिजनों पर उसने गहरा असर डाला और उसके कारण उनमें से भी कई समर्थ व्यक्तियों ने, इनके अनुकरण में क्रियोद्वार, ज्ञानोपासना, आदि की विशिष्ट प्रवृत्ति का बड़े उत्साह के साथ उत्तम अनुसरण किया ।
( जिनेश्वरसूरि के जीवन सम्बन्धी साहित्य और उनकी रचनाओं का विशेष अध्ययन मुनि जिनविजय ने कथाकोष की विस्तृत प्रस्तावना में बहुत विस्तार से दिया है, यहां उसके आवश्यक अंश ही प्रस्तुत किये गये हैं ) जिनेश्वरसूरि से जैन समाज में
नूतन युग का आरंभ
इनके प्रादुर्भाव और कार्यकलाप के प्रभाव से जैन समाज में एक सर्वथा नवीन युग का आरम्भ होना शुरू हुआ । पुरातन प्रचलित भावनाओं में परिवर्तन होने लगा । त्यागी और गृहस्थ दोनों प्रकार के समूहों में नए संगठन होने शुरू हुए। त्यागी अर्थात् यति वर्ग जो पुरातन परम्परागत गण और कुल के रूप में विभक्त था, वह अब नये प्रकार के गच्छों के रूप में संगठित होने लगा । देवपूजा और गुरुउपासना की जो कितनी पुरानो पद्धतियां प्रचलित थीं, उनमें संशोधन और परिवर्तन के वातावरण का सर्वत्र उद्भव होने लगा | इनके पहले यतिवर्ग का जो एक बहुत बड़ा समूह चित्य निवासी होकर चेत्यों की संपत्ति और संरक्षा का अधिकारी बना हुआ था और प्रायः शिथिलक्रिय और स्वपूजानिरत हो रहा था, उसमें इनके आचारप्रवण और भ्रमणशील जीवन के प्रभाव से बड़े वेग से और बड़े परिमाण में परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ । इनके आदर्शों
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