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विधिमार्ग प्रकाशक जिनेश्वरसरि और
उनकी विशिष्ट परम्परा [ पुरातत्त्वाचार्य पद्मश्री मुनि जिनविजयजी ]
थी जिने श्वरसूरि आचार्य श्रीवर्धमानसूरि के शिष्य यथावत् पालन करने वाले यति-मुनि उस समय बहुत कम थे । जिनेश्वर सूरि के प्रगरु एवं श्रीवर्द्ध मानसूरि के संख्या में नजर आते थे। गह श्रीउद्योतनसूरि थे, जो चन्द्रकुल के कोटिक गण की जिनेश्वरसरि का चैत्यवासियों के वज्री शाखा परिवार के थे।
विरुद्ध आन्दोलन ( इन जिनेश्वरसूरि के विषय में, जिनदत्तसूरि कृत गणधर सार्द्धशतक की सुमतिगणि कृत वृहद्वृति में, जिन
शास्त्रोक्त यतिधर्म के आचार और चैत्यवासी यतिजनों पालोपाध्याय लिखित खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में,
के उक्त व्यवहार में, परस्पर बड़ा असामंजस्य देखकर और प्रभा चन्द्राचार्य रचित और किसी अज्ञात प्राचीन पर्वाचार्य श्रमण भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रमण धर्म की इस
प्रकार प्रचलित विप्लव दशा से उद्विग्न होकर जिनेश्वर प्रबन्ध एवं अन्यान्य पट्टावलियाँ आदि अनेक ग्रन्थों-प्रबन्धों में कितना ही ऐतिहासिक वृत्तान्त ग्रथित किया हआ
सूरि ने प्रतिकार के निमित्त अपना एक सुविहित मार्ग
प्रचारक नया गण स्थापित किया और चैत्यवासी यतियों उपलब्ध होता है।) जिनेश्वरसूरि के समय में
के विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन शुरू किया। जैन यतिजनों की अवस्था
यों तो प्रथम, इनके गुरु श्री वर्धमानसूरि स्वयं ही ____ इनके समय में श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में उन यति- चैत्यवासी यतिजनों के एक प्रमुख सूरि थे । पर जैन शास्त्रों
जनों के समूह का प्राबल्य था जो अधिकतर चैत्यों अर्थात् का विशेष अध्ययन करने पर मन में कुछ विरक्त भाव • जिन मन्दिरों में निवास करते थे : ये यतिजन जैन मन्दिर, उदित हो जाने से और तत्कालीन जैन यति सम्प्रदाय जो उस समय चैत्य के नाम से विशेष प्रसिद्ध थे, उन्हीं में की उक्त प्रकार की आचार विषयक परिस्थिति की अहर्निश रहते, भोजनादि करते, धर्मोपदेश देते, पठन-पठनादि शिथिलता का अनुभव, कुछ अधिक उद्वेगजनक लगने से, में प्रवृत्त होते और सोते-बैठते । अर्थात् चैत्य ही उनका मठ उन्होने उस अवस्था का त्याग कर, विशिष्ट त्यागमय या वासस्थान था और इसलिए वे चैत्यवासी के नाम से प्रसिद्ध जीवन का अनुसरण करना स्वीकृत किया था। जिनेश्वरहो रहे थे। इनके साथ उनके आचार-विचार भी बहुत्त सूरि ने अपने गुरु के इस स्वीकृत मार्ग पर चलना विशेष से ऐसे शिथिल अथवा भिन्न प्रकार के जो जैन शास्त्रों रूप से निश्चित किया। नुतना ही नहीं, उन्होंने उसे में वर्णित निग्रन्थ जैनमुनि के आचारों से असंगत दिखाई सारे सम्प्रदायव्यापी और देशव्यापी बनाने का भी देते थे। वे एक तरह के मठपति थे । शास्त्रोक्त आचारों का संकल्प किया और उसके लिए आजीवन प्रबल पुरुषार्थ
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