Book Title: Manidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Manidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ किया। इस प्रयत्न के उपयुक्त और आवश्यक ऐसे ज्ञानबल विधिपक्ष अथवा खरतरगच्छ का और चारित्रबल दोनों ही उनमें पर्याप्त प्रमाण में विद्यमान प्रादुर्भाव और गौरव थे, इसलिये उनको अपने ध्येय में बहुत कुछ सफलता इन्हीं जिनेश्वरसूरि के एक प्रशिष्य आचार्य श्रीजिनप्राप्त हुई और उसी अहिलपुर में, जहां पर चैत्यवासियों वल्लभसूरि और उनके पट्टधर श्रीजिनदत्तसूरि (वि० सं० का सबसे अधिक प्रभाव और विशिष्ट समूह था, जाकर ११६६-१२११) हुए जिन्होंने अपने प्रखर पाण्डित्य, प्रकृष्ट उन्होंने चैत्यवास के विरुद्ध अपना पक्ष और प्रतिष्ठान चारित्र और प्रचण्ड व्यक्तित्व के प्रभाव से मारवाड़, मेवाड़, स्थापित किया। चौलुक्य नृपति दुर्लभराज की सभा में, बागड़, सिन्ध, दिल्ली मण्डल और गुजरात के प्रदेश में चैत्यवासी पक्ष के समर्थक अग्रणी सूराचार्य जैसे महा- हजारों अपने नये भक्त श्रावक बनाये-हजारों ही अजैनों को विद्वान् और प्रबल सत्ताशील आचार्य के साथ शास्त्रार्थ उपदेश देकर नूतन जैन बनाये। स्थान-स्थान पर अपने पक्ष कर, उसमें विजय प्राप्त की। इस प्रसंग से जिनेश्वरसूरि के अनेकों नये जिनमन्दिर और जैन उपाश्रय तैयार करवाये। की वेवल अणहिलपुर में ही नहीं, अपितु सारे गुजरात में, अपने पक्ष का नाम इन्होंने विधिपक्ष' ऐसा उद्घोषित किया और उसके आस - पास के मारवाड़, मेवाड़, मालवा, और जितने भी नये जिनमन्दिर इनके उपदेश से, इनके भक्त वागड़, सिंध और दिल्ली तक के प्रदेशों में खूब ख्याति और श्रावकों ने बनवाये उनका नाम विधिचत्य, ऐसा रखा गया। प्रतिष्ठा बढ़ी। जगह-जगह सैकड़ों ही श्रावक उनके भक्त परन्तु पीछे से चाहे जिस कारण से हो- इनके अनुगामी और अनुयायो बन गए। इसके अतिरिक्त सैकड़ों ही अजैन समुदाय को खरतर पक्ष या खरतरगच्छ ऐसा नूतन नाम प्राप्त गृहस्य भी उनके भक्त बन कर नये श्रावक बने । अनेक हुआ और तदनन्तर यह समुदाय इसी नाम से अत्यधिक प्रभावशाली और प्रतिभाशील व्यक्तियों ने उनके पास यति प्रसिद्ध हुआ जो आज तक अविछिन्न रूप से विद्यमान है। दीक्षा लेकर उनके सुविहित शिष्य कहलाने का गौरव प्राप्त इस खरतरगच्छ में उसके बाद अनेक बड़े बड़े प्रभावकिया। उनकी शिष्य-संतति बहुत बढ़ी और वह अनेक शाली आचार्य, बड़े-बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े-बड़े शाखा-प्रशाखाओं में फैली । उसमें बड़े-बड़े विद्वान, प्रतिभाशाली पण्डित मुनि और बड़े-बड़े मांत्रिक, तांत्रिकक्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य उपाध्यायादि समर्थ ज्योतिर्विद्, वैद्यक विशारद आदि वर्मठ यतिजन हुए साधु पुरुष हुए । नवांग-वृतिकार अभय देवसूरि, संवेगरंग- जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा शालादि ग्रन्थों के प्रणेता जिनचन्द्रसूरि, सुरसुन्दरी चरित के बढ़ाने में बड़ा भारी योग दिया। सामाजिक और कर्ता धनेश्वर अपर नाम जिनभद्रसूरि, आदिनाथ चरितादि साम्प्रदायिक उत्कर्ष की प्रवृत्ति के सिवा, खरतरगच्छाके रचयिता वर्धमानसूरि, पानाथ चरित एवं महावीर चरित नुयायी विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देशीयके कर्ता गुणचन्द्रगणी अपर नाम देवभद्रसूरि, संघपट्टकादि भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम अनेक ग्रन्थों के प्रणेता जिनवल्लभसूरि इत्यादि अनेकानेक बड़े किया और इसके फलस्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, बड़े धुरन्धर विद्वान और शास्त्रकार, जो उस समय उत्पन्न इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों हुए और जिनकी साहित्यिक उपासना से जैन वाङ्मय- का निरूपण करने वाली छोटी-बड़ी सैकड़ों हजारों भण्डार बहुत कुछ समृद्ध और सुप्रतिष्ठित बना-इन्हीं ग्रन्थकृतियाँ जैन-भण्डारों में उपलब्ध हो रही हैं । खरतर जिनेश्वरसूरि के शिष्य-प्रशिष्यों में से थे। गच्छीय विद्वानों की की हुई यह साहित्योपासना न केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 300