Book Title: Mandan Granth Sangraha Part 02
Author(s): Mandan Mantri
Publisher: Laherchand Bhogilal Shah
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श्रीकापडनमः संमनिरे नियतिमेव बलीयसी तां - केचिद्विवेकविमलाः पुरवासिनस्ते । संवीक्ष्यपाण्डुतनया नमितौजसस्तां
स्तादृग्दशांत्रिभुवनप्रथितप्रतापान् ॥४॥ आवेगतः स्तनयुगस्खलितांशुकान्ता ___ कान्ताथ काचन विषादवती स्वगेहात । निर्गत्य लोलनयनाब्जगलज्जलौघा
हा हा हता इह तपस्विन एव केचित् ।।५।। देव्याः पुरः प्रचुरपापकृतातिहिंस्त्र
किरिदैत्यविभुनेत्यवदत्स्वसख्यै । एतन्निशम्य वचनं पृथुवज्रपातनिर्यातघोरमनघा शुधि निष्पपात ॥६॥ श्रीकुन्तिभोजकुलकैरबकौमुदी सा
संतप्यमानबहुपौरवधूपरीता। मूर्च्छत्प्रमोहमहिमोद्धतराहुजग्धा
चैतन्यरूपरजनीपतिराप्ततापा ।७। आश्वासिता विगतमोहभरा वधूभि
दुःखार्दिताभिरभितः किल याण्डपत्नी। उच्चैरुरोद बहलाश्रुजलाकुलाक्षी
स्मृत्वा गुणान्गुणवतां निजनन्दनानाम् ।।८।। हा धर्मधर्मपरराजधुरीण रीण
रेयः परात्म समतायुत हा महात्मन् । हा मातृवत्सल निजावरजानुकम्पिन् __हा सत्यवादवादं नन्दन नंदजात्मन् ।।९।। सौहाईहाईहृदयोरुदयोदयोद्य
द्भूतप्रभूतभयभञ्जनदानवारे ।
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