________________
महावीर कहते हैं, बाहर किसी का अनुगमन नहीं करना है। बाहर के सब रास्ते संसार में ले जाते हैं। किसी का अनुगमन नहीं करना, अपनी ही आत्मा का अनुसरण करना है। किसी की शरण में नहीं जाना, आत्म-शरण बनना है।
महावीर की साधना अ-शरण की साधना है। किसी की शरण नहीं जाना, अपनी ही शरण में आना है। इस मौलिक क्रांतिकारी बिंदु को समझ लेना जरूरी है। इसको समझ कर, फिर महावीर की साधना की क्रांति समझ में आ सकती है।
तो मैं पहली बात आपसे कहूं, महावीर को भगवान के रूप में स्थापित करके हम महावीर के साथ अन्याय कर रहे हैं। महावीर नहीं चाहते कि उन्हें भगवान की तरह स्थापित करो। महावीर चाहते हैं कि तुम अनुभव करो कि तुम भगवान हो। महावीर चाहते हैं, उन्हें परमात्मा की तरह नहीं, तुम अनुभव करो कि तुम्हारे भीतर परमात्मा मौजूद है। मनुष्य की अंतरात्मा ही परिशुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है, यह उनका संदेश है।
और इस बात को...यदि ठीक से दिखाई पड़े कि हमारे भीतर कौन है जिसे हम परमात्मा कह सकें? जिस देह को हम जानते हैं, उस देह में तो कोई परमात्मा जैसा नहीं है। जिस मन को हम जानते हैं, उसमें तो कोई परमात्मा जैसा नहीं है। देह तो बिलकुल पशु है। देह में क्या है जो परमात्मा हो? देह में तो सब कुछ है जो पशु है। एक मनुष्य की देह में और पशु की देह में कोई भेद नहीं है। देह के नियम वही हैं, जो पशु की देह के नियम हैं। देह की दृष्टि से आप पशु से या कोई भी पशु से भिन्न नहीं है। अगर हम अकेले देह ही मात्र हैं, अगर शरीर मात्र हैं, तो पशु ही हैं। तो देह में तो कोई परमात्मा नहीं हो सकता। मन में शायद परमात्मा हो!
___मन को थोड़ा झांकें तो वहां भी पाएंगे, वहां तो पशु से भी बदतर कोई मौजूद है। अगर मन को देखेंगे तो पाएंगे, वहां तो पशु से भी बदतर कोई मौजूद है। इस जगत में कोई पशु इतना बदतर नहीं है, जितना मनुष्य का मन है। कितना पाप, कितनी घृणा, कितना द्वेष, कितनी हिंसा उसके मन में परिव्याप्त है! एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने कहा, अगर प्रत्येक व्यक्ति के मन
का सारा लेखा-जोखा इकट्ठा किया जा सके, तो ऐसा आदमी पाना कठिन होगा, जो अपनी जिंदगी में अनेक लोगों की हत्या के विचार नहीं करता है। ऐसा आदमी पाना कठिन होगा, जो बड़े-बड़े डाके अपने मन में नहीं डालता है। ऐसा व्यक्ति पाना कठिन होगा, जो अनेक-अनेक रूपों में व्यभिचार की कल्पना और योजना नहीं करता है। वहां मन में एक-दो पापी नहीं, अनेक पापी जैसे इकट्ठा हैं। मन भी परमात्मा नहीं हो सकता।
यह महावीर कहते हैं कि तुम्हारे भीतर परमात्मा है। वह कहां होगा? यह देह तो पशु है। इसके भीतर जो मन है, वह और भी पशु से बदतर है। इस देह और मन, दोनों में परमात्मा नहीं हो सकता।
लेकिन हमारा जानना, हमारा पहचानना, हमारा बोध हमारे शरीर और मन के बाहर नहीं है। हम अपने शरीर को जानते हैं और अपने मन को जानते हैं। इनके पीछे तुम्हें किसी का कोई अंतर्दर्शन नहीं होता है। उस अंतर्दर्शन को उपलब्ध हुए बिना, जो शरीर और मन के पीछे है, कोई व्यक्ति इस सत्य को नहीं समझ सकेगा कि हमारे भीतर परमात्मा है। मैं किसी से कहूं, तुम्हारे भीतर परमात्मा है, तो बड़ी हैरानी भर होती है। ऐसा हमारा जानना नहीं है।
37