Book Title: Mahavir ya Mahavinash
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rajnish Foundation

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Page 185
________________ नहीं दिखा। इतनी तीव्रता से तुमने वस्त्र फेंक दिए। लेकिन मुनि भी न समझ पाए कि जितनी तीव्रता से कुएं में धक्का दे सकता है वह, उतनी ही तीव्रता से वस्त्र भी फेंक सकता है। वह क्रोध का ही रूप है। असल में क्रोध बहुत रूपों में प्रकट होता है। क्रोध संन्यास भी लेता है। इसलिए संन्यासियों में निन्यानबे प्रतिशत क्रोधी इकट्ठे मिल जाते हैं। उसके कारण हैं। उसने वस्त्र फेंक दिए हैं, वह नग्न हो गया है, वह संन्यासी हो गया है। दूसरे साधक पीछे पड़ गए हैं। उससे साधना में कोई आगे नहीं निकल सकता। क्रोध किसी को भी आगे नहीं निकलने देता। क्रोध ही इसी बात का है कि कोई मुझ से आगे न हो जाए। वह साधना में भी उतना ही क्रोधी है। लेकिन साधना की खबर फैलने लगी। जब दूसरे छाया में बैठे रहते हैं, वह धूप में खड़ा रहता है। जब दूसरे भोजन करते हैं, वह उपवास करता है। जब दूसरे शीत से बचते हैं, वह शीत झेलता है। उसके महातपस्वी होने की खबर गांव-गांव में फैल गई है। उसके क्रोध ने बहत अदभत रूप ले लिया है। कोई नहीं पहचानता, वह खद भी नहीं पहचानता कि य ही है जो नये-नये रूप ले रहा है। फिर वह देश की राजधानी में आया। दूर-दूर से लोग उसे देखने आते हैं। देश की राजधानी में उसका एक मित्र है बचपन का। वह बड़ा हैरान है कि वह क्रोधी व्यक्ति संन्यासी कैसे हो गया। हालांकि नियम यही है। वह देखने गया उसे। संन्यासी मंच पर बैठा है। वह मित्र सामने बैठ गया। संन्यासी की आंखों से मित्र को लगा है कि वह पहचान तो गया। लेकिन मंच पर कोई भी बैठ जाए फिर वह नीचे मंच वाले को कैसे पहचाने? पहचानना बहुत मुश्किल है। फिर वह मंच कोई भी हो, चाहे वह राजनीतिक हो, चाहे गुरु की हो। मित्र ने पूछा, आपका नाम? संन्यासी ने कहा, शांतिनाथ। फिर परमात्मा की बात करते रहे। मित्र ने संन्यासी से फिर वही प्रश्न किया। संन्यासी का हाथ डंडे पर गया। उसने कहा, बहरे तो नहीं हो? बुद्धिहीन तो नहीं हो? कितनी बार कहूं कि मेरा नाम है शांतिनाथ! मित्र थोड़ी देर चुप रहा। कुछ और बात चलती रही आत्मा-परमात्मा की। फिर उसने पूछा कि क्षमा करिए, आपका नाम क्या है? फिर आप सोच सकते हैं क्या हुआ। वह डंडा उस मित्र के सिर पर पड़ा। उसने कहा कि तुझे समझ नहीं पड़ता कि मेरा नाम क्या है? मित्र ने कहा कि अब मैं पूरी तरह समझ गया। यह पता लगाने के लिए ही तीन बार नाम पूछा है कि आदमी भीतर बदला है या नहीं बदला है। अहिंसा कांटों पर लेट सकती है, भूख सह सकती है, शीर्षासन कर सकती है, आत्मपीड़ा बन सकती है-अगर भीतर हिंसा मौजूद हो। दूसरों को भी दुख और पीड़ा का उपदेश दे सकती है। हिंसा भीतर होगी तो वह इस तरह के रूप लेगी, खुद को सताएगी, दूसरों को सताएगी और इस तरह के ढंग खोजेगी कि ढंग अहिंसक मालूम होंगे लेकिन भीतर सताने की प्रवृत्ति परिपूर्ण होगी। असल में अगर एक व्यक्ति अपने अनुयायी इकट्ठा करता फिरता हो तो उसके अनुयायी इकट्ठा करने में और हिटलर के लाखों लोगों को गोली मार देने में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। असल में गुरु भी मांग करता है अनुयायी से कि तुम पूरी तरह मिट जाओ, तुम बिलकुल न रहो, तुम्हारा कोई व्यक्तित्व न बचे, समर्पित हो जाओ पूरे। अनुयायी की मांग करने वाला गुरु भी व्यक्तित्व को मिटाता है सूक्ष्म ढंगों से, पोंछ देता है व्यक्तियों को। फिर सैनिक रह जाते हैं 178

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