Book Title: Mahavir ya Mahavinash
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rajnish Foundation

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Page 192
________________ जिनके बाबत ज्यादा से ज्यादा हमें पता है। महावीर के पहले भी अहिंसा को अनुभव करने वाले लोग रहे होंगे, लेकिन महावीर सबसे बड़े स्पष्ट व्याख्याता हैं। फिर यह भी होता है कई बार कि कोई आदमी जान ले तो जरूरी नहीं है कि बता सके। मैं जाऊं और चांदनी रात देखू, तारे देखू, और लौट कर आऊं और आप मुझसे कहें कि एक चित्र बना कर बता दें जो सौंदर्य आपने देखा है। हो सकता है कि मैं न बना सकू, क्योंकि रात की चांदनी देखना एक बात है और चित्र बनाने की कला अलग बात है। बहुत लोगों ने अहिंसा देखी हो, लेकिन महावीर ने जिस ढंग से बताई है, शायद किसी शिक्षक ने नहीं बताई है। प्रश्न : ओशो, आपने बताया कि जब भी अहिंसा को शब्द देते हैं वह वाद या सिद्धांत का रूप धारण कर लेती है, वह अहिंसा हिंसा के रूप में परिणत हो जाती है। और आपने कहा कि विवेक द्वारा ही हम अपनी अनुभूति को जगा सकते हैं और कार्य का संपादन कर सकते हैं। तो मेरा प्रश्न यह है कि इस विवेक का स्फुरण कैसे हो? और जब आप बताएंगे कि विवेक के स्फुरण करने में यह पद्धति होगी, तो वह पद्धति शास्त्र का रूप धारण कर लेगी! ठीक कहते हैं, बिलकुल ठीक कहते हैं। आपने दो-तीन बातें पूछी जो कि महत्वपूर्ण हैं। पहली बात यह कि मैंने कहा कि अहिंसा को संगठित नहीं किया जा सकता। असल में सिर्फ घृणा के लिए संगठित होने की जरूरत है, शत्रुता के लिए संगठित होने की जरूरत है। प्रेम के लिए संगठित होने की जरूरत ही नहीं है। प्रेम अकेले ही काफी है। घृणा अकेले काफी नहीं है, इसलिए घृणा संगठन बनाती है। दुनिया के सब संगठन घृणा के ही संगठन हैं, हिंसा के ही संगठन हैं। और इसलिए जब घृणा का मौका आ जाता है तो लोग संगठित हो जाते हैं। जैसे भारत पर चीन का हमला हुआ तो लोग ज्यादा संगठित हो जाएंगे। हमला चला जाएगा, संगठन कम हो जाएगा। क्योंकि हमला घृणा को पैदा करेगा, हिंसा को पैदा करेगा। असल में जो व्यक्ति प्रेम को उपलब्ध है वह अकेला ही काफी है। वह दूसरे को इकट्ठा करने नहीं जाता। दूसरे को इकट्ठा करने की कोई जरूरत ही नहीं। दूसरे को हम इकट्ठा तब करते हैं जब कुछ ऐसा करना हो जिसे अकेला करना कठिन हो जाए। प्रेम अकेले ही किया जा सकता है, अकेले ही बांटा जा सकता है। लेकिन संगठन की जरूरत है, क्योंकि हमें बड़ी हिंसाएं करनी हैं, बड़ी हत्याएं करनी हैं-राष्ट्रों के नाम पर, संप्रदायों के नाम पर, धर्मों के नाम पर। तो जब भी संगठन होगा, उसके केंद्र में हिंसा होगी, घृणा होगी, चाहे वह संगठन किसी का भी हो। हो सकता है कि अहिंसकों का हो हिंसकों के खिलाफ। तो भी वह हिंसा ही होगी। संगठन मात्र हिंसात्मक होंगे। अहिंसात्मक संगठन का कोई अर्थ नहीं होता। अहिंसात्मक व्यक्ति अकेला ही काफी है। दस अहिंसात्मक व्यक्ति भी मिल कर बैठ सकते हैं, लेकिन वे एक-एक ही होंगे। संगठन का कोई अर्थ नहीं है, यह मैंने कहा। दूसरी बात आपने बहुत बढ़िया पूछी, वह यह कि स्फुरण कैसे हो विवेक का? और साथ में यह भी पूछा कि मैं बताऊंगा तो फिर वह शास्त्र हो जाएगा! 185

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