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प्रिय चिदात्मन् ,
1 मैं आपकी आंखों में झांकता हूं। एक पीड़ा, एक घना दुख, एक गहरा संताप,
एंग्विश वहां मुझे दिखाई देते हैं। जीवन के प्रकाश और उत्फुल्लता को नहीं, वहां मैं जीवन-विरोधी अंधेरे और निराशा को घिरता हुआ अनुभव करता हूं। व्यक्तित्व के संगीत का नहीं, स्वरों की एक विषाद भरी अराजकता का वहां दर्शन होता है। सब सौंदर्य, सब लययुक्तता, सब अनुपात खंडित हो गए हैं। हम अपने को व्यक्ति, इंडिविजुअल कहें, शायद यह भी ठीक नहीं है। व्यक्ति होने के लिए एक केंद्र चाहिए, एक सुनिश्चित संगठन, क्रिस्टलाइजेशन चाहिए, वह नहीं है। उस व्यक्तित्व संगठन और केंद्रितता, इंडिविजुएशन के अभाव में हम केवल अराजकता, एनार्की में हैं।
मनुष्य टूट गया है। उसके भीतर कुछ बहुमूल्य, एसेंशियल खो गया और खंडित हो गया है। हम किसी एकता, यूनिटी के जैसे खंडहर और अवशेष हैं। वह एकता महावीर में, बुद्ध में, क्राइस्ट में परिलक्षित होती है। वे व्यक्ति हैं, क्योंकि वे स्वरों की अराजक भीड़ नहीं, संगीत हैं, क्योंकि वे स्व-विरोध से भरी अंधी दौड़ नहीं, एक सुनिश्चित गति और दिशा हैं।
जीवन अपने केंद्र और दिशा को पाकर आनंद में परिणत हो जाता है। व्यक्तित्व को और उसमें अंतर्निहित समस्वरता, हार्मनी को उपलब्ध कर लेना वास्तविक जीवन के द्वार खोलना है। उसके पूर्व जीवन एक वास्तविकता, एक्चुअलिटी नहीं, केवल एक संभावना है, एक भविष्य, पोटेंशियलिटी है।
मनुष्य के व्यक्तित्व विघटन की यह दुर्घटना सारे जगत में घटी है। हम अपने ही से विच्छिन्न और पृथक हो गए हैं। हम एक ऐसे वृत्त हैं, जिसका केंद्र खो गया है और केवल परिधि ही शेष रह गई है। जीवन की परिधि पर दौड़ रहे हैं, दौड़ते रहेंगे और फिर गिर जाएंगे और एक क्षण को भी उसे नहीं जानेंगे जिसे विश्रांति कहते हैं। तेलघानी में कोल्हू के बैलों जैसी हमारी गति हो गई है।
जीवन परिधि ही नहीं है, केंद्र भी है, यह जाने बिना सब प्रयास, सब गति अंततः व्यर्थ
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