Book Title: Mahavir ya Mahavinash
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rajnish Foundation

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Page 209
________________ मैं समस्त त्याग को इसी रूप में देख पाता हूं। वह श्रेष्ठ की उपलब्धि पर उसके लिए स्थान बनाने से ज्यादा नहीं है। वह ज्ञान का अग्रगामी नहीं, अनुगामी है। जैसे गाड़ी के पीछे उसके चाकों के निशान बिना बनाए बनते जाते हैं, ऐसा ही आगमन उसका भी होता है। वह ज्ञान की सहज छाया है। मैं हिंसा को, अधर्म को, अज्ञान को नकारात्मक कहता हूं, वैसे ही जैसे अंधेरा नकारात्मक है। अंधेरे की अपनी कोई सत्ता नहीं है, उसका कोई स्व अस्तित्व, सेल्फ एक्झिस्टेंस नहीं है। वह सत्ता नहीं, अभाव है । वह स्वयं का होना नहीं, प्रकाश का न होना है। वह प्रकाश की अनुपस्थिति है। यदि इस कक्ष में अंधेरा व्याप्त हो और हम उसे दूर करना चाहते हों, तो क्या करना होगा? क्या उसे संघर्ष से धक्के देकर बाहर किया जा सकता है? क्या अंधेरे से किए गए सीधे युद्ध के परिणाम में उसकी मृत्यु हो सकती है ? मित्र, यह कभी नहीं होगा, उस मार्ग से चलने पर अंधेरा तो नहीं, मिटाने वाले अवश्य मिट सकते हैं। अंधेरे को मिटाने का उपाय अंधेरे को मिटाना नहीं, प्रकाश को जलाना है। जिसकी अपनी स्व सत्ता नहीं, उसे निषेध से मिटाना असंभव है। अभाव को न तो लाया जा सकता, न हटाया जा सकता है। अंधेरे को कहीं ले जाना भी संभव नहीं है। सत्ता ही लाई और सत्ता ही हटाई जा सकती है। अभाव के साथ सीधी कोई भी क्रिया नहीं होती है। उसके साथ सब व्यवहार अप्रत्यक्ष होता है। उसके साथ समस्त व्यवहार उसके माध्यम से होता है, जिसका कि वह अभाव है। अहिंसा, प्रेम, आनंद, परमात्मा भावात्मक हैं, पाजिटिव हैं। उनकी सत्ता है । वे किसी के अभाव, अनुपस्थिति मात्र ही नहीं हैं। उनका स्वयं में होना है। इसलिए किसी के अभाव से उनका होना नहीं होता है । यद्यपि उनके अभ्युदय से हिंसा, दुख, अज्ञान आदि अंधेरे की भांति तिरोहित हो जाते हैं। शायद अंधेरा विलीन हो जाता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह तो था ही नहीं। वस्तुतः प्रकाशागमन पर इस सत्य का दर्शन होता है कि वह न तो था, न है। यह अब कहा जा सकता है कि अहिंसा हिंसा - त्याग नहीं, आत्म- जागरण है । वह दुखमुक्ति नहीं, आनंद-प्रतिष्ठा है। वह त्याग नहीं, उपलब्धि है । यद्यपि उसके आविर्भाव से हिंसा विलीन हो जाती है, दुख निरोध हो जाता है और परम त्याग फलित होता है। अहिंसा को पाना है, तो आत्मा को पाना होगा । अहिंसा उसी साक्षात का परिणाम, कांसीक्वेंस है। उसे साधा नहीं जा सकता है। कृष्णमूर्ति ने पूछा है, क्या प्रेम भी साधा, कल्टीवेट किया जा सकता है? और उस प्रश्न में ही उत्तर भी दे दिया है । निश्चय ही साधा हुआ प्रेम प्रेम नहीं हो सकता है। वह या तो होता है या नहीं होता है । कोई तीसरा विकल्प नहीं है। वह सहज प्रवाहित हो तो ठीक, अन्यथा वह अभिनय और मिथ्या प्रदर्शन है | साधी हुई अहिंसा अहिंसा नहीं, अभिनय है । विचार और चेष्टा से जो आरोपित है, वह मिथ्या है। सम्यक अहिंसा प्रज्ञा से प्रवाहित होती है, वैसे ही जैसे अग्नि से उत्ताप बहता है । आरोपण से आचरण में दिखता है, वह अंतस में नहीं होता है, नहीं हो सकता है। आचरण और अंतस की विपरीतता एक सतत अंतर्द्वद्व बन जाता है । जिसे जीता है, उसे बार-बार जीतना पड़ता है। पर जीत कभी पूरी नहीं होती है । वह हो भी नहीं सकती है। 202

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