Book Title: Mahavir ya Mahavinash
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rajnish Foundation

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Page 208
________________ स्वास्थ्य बीमारी का अभाव ही नहीं, प्राणशक्ति, वाइटल फोर्स का जागरण है। वह प्राण की प्रसुप्त और बीज - शक्ति का जागना और वास्तविक बनना है। बीमारी से बचाव तो मुर्दों का भी हो सकता है, लेकिन उन्हें स्वास्थ्य नहीं दिया जा सकता है। बीमारियों से बच - बच कर कोई अपने को जिलाए रख सकता है, लेकिन स्वास्थ्य और जीवन को पाना बहुत दूसरी बात है। धर्म-साधना में भी स्वास्थ्य - साधना के इस विज्ञान को याद रखना अत्यधिक उपादेय है । एक साधु आश्रम में अतिथि था। उसके स्वागत में एक समारोह आयोजित था । उस आश्रम के कुलपति ने अपने आश्रम और आश्रम के अंतेवासियों के परिचय में कहा था, हम हिंसा नहीं करते हैं, हम मादक द्रव्यों का उपयोग नहीं करते हैं, हम परिग्रह नहीं करते हैं। इसी स्वर में उसने और बहुत सी बातें बताई थीं, जो कि साधु नहीं करते थे । वह अतिथि देर तक यह सब सुनता रहा था और अंत में उसने पूछा था, मैं यह तो समझ गया कि आप क्या नहीं करते हैं, अब कृपया यह और बताएं कि आप करते क्या हैं ! निश्चय ही, यही मैं भी पूछना चाहता हूं, 'न करने' और 'करने' के इस बहुमूल्य भेद की मैं भी याद दिलाना चाहता हूं। अहिंसा को, या उस दृष्टि से धर्म को ही जिसने 'न करने' की भाषा में समझा और पकड़ा है, वह बहुत आधारभूत भूल में पड़ गया है। शवीत्जर ने जिसे जीवन-निषेध, लाइफ निगेशन कहा है, वही उसकी चर्या हो जाती है । जीवन - विधेय, विधायकता, लाइफ एफर्मेशन के लक्ष्य से उसके संबंध-सूत्र विच्छिन्न हो जाते हैं । वह उपलब्धि के आरोहण को खो देता है, और केवल खोने और न होने में लग जाता है। और सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि खोने की इस सतत चेष्टा और आग्रह के बावजूद भी जिन्हें वह खोना चाहता है, उन्हें नहीं खो पाता है। संघर्ष से जिन्हें वह दूर करता है, वे किसी रहस्यमय ढंग से उसके निकट ही बने रहते हैं। वह विश्राम भी नहीं कर पाता है कि पाता है कि जिन्हें वह दूर छोड़ आया था, वे सब पुनः वापस लौट आए हैं। जिन्हें वह दमन करता है, वे वेग न मालूम क्यों और वेग पकड़ते प्रतीत होते हैं। जिन वासनाओं से वह युद्धरत है, जिनके सिरों को वह धड़ों से अलग कर फेंक देता है, वह अवाक रह जाता है कि वे सब पुनः पुनः हजारहजार सिर रख कर फिर उसे घेर कर कैसे खड़ी हो जाती हैं ? हिंसा, क्रोध या काम, सेक्स कोई भी केवल दमन से विलीन नहीं होता है। नकार और विरोध मात्र से ये वेग समाप्त नहीं होते हैं । उस भांति वे और सूक्ष्म होकर चित्त की और भी गहरी पर्तों पर सक्रिय हो जाते हैं । फ्रायड ने जिसे अचेतन मन, अनकांशस कहा है, वही दमन से उनका कार्य क्षेत्र बन जाता है । इस दमन, सप्रेशन और विरोध की दिशा से चल कर व्यक्ति विमुक्त तो नहीं, विक्षिप्त अवश्य हो सकता है। I वस्तुतः, जीवनानुभूतियों के जगत में निषेध के मार्ग से न कभी कुछ पाया गया, न कभी कुछ पाया जा सकता है; न कभी कुछ छोड़ा गया है, न कभी छोड़ा जा सकता है। वह दिशा ही पाने और छोड़ने की नहीं है। असल में, सब छोड़ने के पूर्व पाना होता है। श्रेष्ठ का मिलना ही अश्रेष्ठ का छूटना बनता है। हीरों के मिलने पर कंकड़ों पर मुट्ठी खोलनी नहीं पड़ती है, वह खुल जाती है। 201

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