Book Title: Mahavir ya Mahavinash
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rajnish Foundation

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Page 190
________________ है, आंखें बंद हैं, हाथ-पैर अकड़ गए हैं। मेरी दृष्टि में उनकी चेतना भी खो गई है । वह उसी हालत में हैं जिस हालत में कोई हिस्टीरिया में हो। और इसलिए उनके व्यक्तित्व में कोई अंतर नहीं होगा। हिंसा जारी रहेगी। महावीर और बुद्ध की इस जगत को जो सबसे बड़ी देन है वह इस भांति के ध्यान के प्रयोग हैं, जिस प्रयोग का अनिवार्य परिणाम अहिंसा होती है । और जिस ध्यान के प्रयोग का अनिवार्य परिणाम अहिंसा न होती हो, उस ध्यान के प्रयोग का अंतिम परिणाम ब्रह्मचर्य भी नहीं हो सकता है, क्योंकि कामवासना भी बहुत गहरे में हिंसा का ही एक रूप है। जिसके भीतर गाली उठती है वह गाली देता है, क्रोध आता है तो क्रोध करता है, वह आदमी स्पष्ट है, सहज है, जैसा है वैसा है। उसके बाहर और भीतर में कोई फर्क नहीं है । परम ज्ञानी के भी बाहर और भीतर में फर्क नहीं होता । परम ज्ञानी जैसा भीतर होता है वैसा ही बाहर होता है। अज्ञानी जैसा बाहर होता है वैसा ही भीतर होता है । बीच में एक पाखंडी व्यक्ति है जो भीतर कुछ होता है, बाहर कुछ होता है । पाखंडी व्यक्ति बाहर ज्ञानी जैसा होता है, भीतर अज्ञानी जैसा होता है । पाखंडी का मतलब है भीतर अज्ञानी जैसा। उसके भीतर भी गाली उठती है, क्रोध उठता है, हिंसा उठती है । और बाहर वह ज्ञानी जैसा होता है, अहिंसक होता है, 'अहिंसा परमो धर्मः' की तख्ती लगा कर बैठता है, सच्चरित्रवान दिखाई पड़ता है, सब नियम पालन करता है, अनुशासनबद्ध होता है। बाहर उसका कोई व्यक्तित्व नहीं । कोई अहिंसा का अनुयायी नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है । अहिंसा को आचरण से साधने कोई जाएगा तो अभिनय, पाखंड में पड़ जाएगा। सामने के द्वार से अहिंसक होगा, पीछे के द्वार से हिंसा जारी रहेगी। मिथ्या अहिंसा और भी खतरनाक है, क्योंकि वह अहिंसा मालूम पड़ती है और अहिंसा नहीं है । फिर उपाय क्या है? फिर उपाय सिर्फ एक है, क्योंकि अहिंसा है एक नकारात्मक स्थिति, हिंसा जहां नहीं है ऐसी स्थिति । और हिंसा में हम खड़े हैं। हम क्या करें ? दो ही उपाय हैं। या तो हम हिंसा से लड़ें या अहिंसक होने की कोशिश करें। कोशिश से साधी गई अहिंसा कभी भी अहिंसा नहीं हो सकती। क्योंकि कोशिश करने वाला हिंसक है। और हिंसक ने जो कोशिश की है उसमें हिंसा मौजूद है । और हिंसक ने जो भी कोशिश की है, उसमें हिंसा प्रविष्ट हो जाएगी। फिर क्या करें ? एक ही उपाय है, अपनी हिंसा के साक्षी बन जाने का। कुछ भी न करें, करने की बात ही छोड़ दें। मैं जैसा हूं—हिंसक, क्रोधी, अत्याचारी, अनाचारी, दुराचारी - जैसा भी मैं हूं, मैं उसके प्रति जागा हुआ रह जाऊं और इस स्थिति में रहने की कोशिश करूं कि मैं जानूं जो भी हूं, बदलने की फिक्र ही न करूं, सिर्फ जानूं । बदलने की फिक्र में जान भी नहीं पाते हैं और अगर कोई जान ले तो बदल पाता है। ज्ञान ही रूपांतरण है, ज्ञान ही क्रांति है। अपनी हिंसा को जान लेना अहिंसा को उपलब्ध हो जाना है। इससे यह मतलब मत समझ लेना कि आपको अहिंसा का जो अनुभव होगा, वह नकारात्मक होगा। एक अर्थ में अहिंसा की स्थिति नकारात्मक है। हिंसा चली जाएगी तो जो शेष रह जाएगा वह अहिंसा है। इस अर्थ में वह नकारात्मक है। लेकिन जब अहिंसा प्रकट होगी और सारे जीवन से उसकी किरणें फूट पड़ेंगी, उससे ज्यादा कोई विधायक अनुभूति नहीं है। 183

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