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नहीं है। एक मुसलमान मुझसे पूछता है, कुरान उतरी मोहम्मद के ऊपर, तो वह किताब की किताब उतरी या किस तरह उतरी ? यह कोई दूसरा हिंदू या बौद्ध नहीं पूछता ! क्यों ?
ये प्रश्न जिंदगी के नहीं, किताबों के हैं। जो जिंदगी का प्रश्न है, वह हिंदू का, ईसाई का मुसलमान का, जैन का एक ही होगा। क्योंकि जिंदगी तो एक ही प्रश्न उठाती है, किताबें अलग-अलग प्रश्न उठाती हैं । और जो किताबों से प्रश्न पूछेंगे, वे पंडित भले हो जाएं, प्रज्ञा को उपलब्ध नहीं होंगे। वे बहुत सी बातें, इनफर्मेशन इकट्ठी कर लें, किताबें लिख डालें, भाषण करें, दूसरों को समझाने के योग्य अपने में दंभ पैदा कर लें, तो उससे कोई हल नहीं होगा। जो प्रश्न किताबों से उठते हैं, वे मुर्दा हैं। जो प्रश्न जिंदगी से उठते हैं, वे जीवित हैं। और जो प्रश्न जिंदगी से उठते हैं, वे ही जिंदगी को बदलने में समर्थ हो पाते हैं, ग्रंथों से उठे हुए प्रश्न जिंदगी को नहीं बदलते हैं।
महावीर के लिए प्रश्न जिंदगी से उठे । और जिंदगी से उठे, यह पहली बात । और दूसरी बात, उन्होंने किसी के उत्तर स्वीकार नहीं किए, खुद उत्तर पाने की चेष्टा शुरू की। पहली बात प्रश्न जिंदगी से उठे, और दूसरी बात अपने ही जीवन में तलाश शुरू की, कहीं किसी से जाकर शिक्षा लेने का उपाय नहीं किया। जो प्रश्न किताब से उठेंगे, उनके उत्तर किताबों में मिल जाएंगे। जो प्रश्न जिंदगी से उठेंगे, उनके उत्तर साधना में मिलेंगे। यह समझ लेना जरूरी है।
महावीर को जिंदगी से प्रश्न उठे । दुख, अमुक्ति, बंधन, एकमात्र प्रश्न है जो महावीर के चित्त में है। एकमात्र प्रश्न है कि दुख क्यों है ? दुख का बंधन क्यों है ? और जब यह प्रश्न है, तो एक ही साधना है कि क्या दुख के बाहर हुआ जा सकता है ? क्या दुख के बंधन के ऊपर उठा जा सकता है? इसका कोई किताब उत्तर नहीं दे सकती। कोई रेडीमेड, किसी के उत्तर काम के नहीं हो सकते। इसे तो अनुभूति से जानना होगा ।
जीवन से प्रश्न उठे, महावीर साधना में गए। किस साधना में गए ?
लोग देखते हैं, उन्होंने घर-बार छोड़ दिया, राज्य-संपत्ति छोड़ दी । तो लोग सोचते हैं, यही साधना थी। यह साधना नहीं है । जो बाहर दिखता है, उससे साधना का कोई संबंध नहीं है। साधना तो आंतरिक है। मकान बाहर से छोड़ कर निकल जाना आसान है। सवाल मकान से निकल जाने का नहीं है, सवाल मेरी खोपड़ी से मकान निकल जाए उसका है।
एक साधु के बाबत मैं पढ़ता था । एक बादशाह उसे इतना प्रेम करने लगा कि अपने महल में उस साधु को रख लिया। इतना प्रेम करने लगा कि बाद में एक महल उसके लिए बना दिया। वर्ष पर वर्ष बीते । बारह वर्ष बीते । एक दिन उस बादशाह को हुआ, अब इस साधु में और मुझमें अंतर क्या है ? यह तो फिजूल में ही साधु कहलाता है। हम भी बादशाह हैं और यह भी अब बादशाह की तरह रहता है । हमारी तो कुछ मुसीबतें हैं, इसकी वे मुसीबतें भी नहीं हैं। यह तो मजे से, मौज से रहता है।
उसने सुबह बगीचे में टहलते हुए उस साधु को कहा कि मित्र, एक प्रश्न रात्रि से मेरे मन में है। मैं पूछना चाहता हूं, मुझमें और आपमें अब अंतर क्या है ? वह फकीर सुन कर हंसने लगा और बोला, सच में जानना चाहते हो? तो थोड़े दूर मेरे साथ गांव के बाहर चलो। जरा एकांत आ जाएगा तो उत्तर दूंगा । बादशाह बोला, ठीक है । वे दोनों गांव के बाहर निकले, नदी जो सीमा
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