Book Title: Mahavir ya Mahavinash
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rajnish Foundation

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Page 169
________________ है। उसे तो बड़ा स्थायी सुख चाहिए। उसके लोभ का अंत नहीं है। उसकी सुख की कामना बड़ी गहरी और प्रगाढ़ है। I इसलिए यह मैं नहीं कहता हूं कि दुकान पर हों, धंधे में हों, तो आप सुख के आकांक्षी हैं। सुख की आकांक्षा चित्त की एक रुग्णता है जो कहीं भी हो सकती है। संन्यासी में भी हो सकती है, गृहस्थ में भी हो सकती है। इसलिए सुख की रुग्णता पर मेरा जोर है, आप कहां हैं यह सवाल नहीं है। क्या सुख पाने की कामना आपके मन में है ? क्या आप चाहते हैं कि मैं सुख पाऊं ? अगर आप सुख पाना चाहते हैं और उसी कामना के वशीभूत होकर कुछ भी करते हैं - चाहे धन कमाते हैं, चाहे पुण्य कमाते हैं—दोनों स्थितियों में अभी सत्य की खोज आपकी प्रारंभ नहीं हुई । महावीर की खोज स्वर्ग की खोज नहीं है, नहीं तो वह सुख की खोज होती है। महावीर की खोज मोक्ष की खोज है। मोक्ष सुख का स्थान नहीं है, इस खयाल में कोई न रहे। मोक्ष में न तो सुख है, न दुख । वह जो मुक्त चित्त की अवस्था है वहां न सुख है, न दुख । इसलिए महावीर की खोज स्वर्ग की खोज नहीं है। और जहां भी धर्म स्वर्ग की बातें करता हो वह फैली हुई दुकान की ही शक्ल है। वह कोई धर्म नहीं है, वह राजपथ पर चलने वाले लोगों की ही तृप्ति है। वह पगडंडी पर अकेली हिम्मत से खोजने वालों का मार्ग नहीं है। लेकिन हम सोचते हैं कि महावीर धर्म बनाते होंगे, तो गलती में हैं। महावीर से धर्म का जन्म तो होता है, लेकिन उनके आस-पास जो दुकानदार इकट्ठे हो जाते हैं वे धर्म बनाते हैं। धर्म बनाने वाले दूसरे और जिनसे धर्म का जन्म होता है वे बहुत दूसरे लोग हैं। जिनसे जन्म होता है वे तो समाप्त हो जाते हैं और धर्म को जो बनाने वाले दुकानदार हैं उनकी संततियां सम्हालती चली जाती हैं दुकान को । और धीरे-धीरे धर्म भी मोक्ष की खोज न होकर सुख की और स्वर्ग की खोज हो जाती है। और तब हमें सब को अपील करने लगती है, क्योंकि सुख की तो हम सबकी कामना है कि वह मिल जाए - कहीं भी, इस जमीन पर मिले, उस जमीन पर मिले। मैं एक दिन एक रास्ते से गुजरता था । और एक महिला मेरे पास आई और उसने मुझे एक किताब दी । किताब के ऊपर एक बड़ा सुंदर भवन था। एक बहुत सुंदर नदी पीछे बहती थी। बड़े ऊंचे चिनार के दरख्त थे। बड़ा सुंदर ऊपर ! तो मैं उस चित्र को देखा, पन्ना पलटाया, पीछे लिखा था, क्या आप ऐसे भवन में, ऐसे सुंदर स्थान में, ऐसी सुंदर नदी के किनारे रहना पसंद करेंगे? मैं हैरान हुआ कि क्या बात है ! दूसरा पन्ना उलटा, उस पर लिखा था कि जो भी प्रभु ईसा में विश्वास करेंगे, स्वर्ग में उनके लिए ऐसी व्यवस्था है । कितने लोलुप हैं जमीन पर जो इस पर विश्वास नहीं कर लेंगे! आखिर कौन है ऐसा जो बड़ा मकान और नदी के किनारे नहीं चाहता! और कौन है ऐसा, जहां सारी व्यवस्था और सुविधा न हो ! और फिर इस जमीन पर जो सुविधा नहीं जुटा पाते उनकी कामना तो बहुत बनी रहती है कि वहां मिल जाए। सुख की खोज की तृष्णा अर्थ पर समाप्त नहीं होती, धर्म में प्रविष्ट हो जाती है। और इसलिए धर्म विकृत हो जाता है और पतित हो जाता है। 162

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