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मैं एक गांव में गया था। एक साधु का प्रवचन सुना था। दो दिन सुना, दो दिन उन्होंने निरंतर कहा। उनसे मिलने गया, तब भी उन्होंने मुझसे कहा, मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। मैंने उनसे पूछा, यह लात कब मारी थी? वह मुझे कहे कि कोई बीस वर्ष हुए। और तब मैंने उनसे कहा कि लात मारी नहीं जा सकी होगी, अन्यथा बीस वर्ष उसे याद रखने की कोई जरूरत न थी। वह लात मारी नहीं जा सकी। बीस वर्ष पहले लाखों रुपये मेरे पास थे, यह अहंकार तृप्ति देता रहा होगा। बीस वर्ष से यह अहंकार परिपुष्ट हो रहा है कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है। बात वहीं की वहीं है।
संपत्ति छोड़ी नहीं जाती, एक दिन दिखता है, वहां संपत्ति है ही नहीं। एक दिन दिखता है कि वहां संपत्ति है ही नहीं, वहां संपत्ति का अभाव है। मुट्ठी खुल जाती है, कुछ छोड़ना नहीं पड़ता है। शायद उस दिन कोई मजबूर करे कि मुट्ठी बांधे रखो तो बड़ी तपश्चर्या हो। उस व्यर्थ के बोझ को ढोने में तपश्चर्या हो सकती है। व्यर्थ के बोझ को छोड़ आने में कौन सी तपश्चर्या हो सकती है!
त्याग नहीं, केवल ज्ञान ही पर्याप्त है। छोड़ना नहीं होता, केवल जानना होता है। जानना क्रांति है। जान लें ठीक से, क्या है जो सार्थक है, क्या है जो व्यर्थ है-क्रांति घटित हो जाती है। ज्ञान का परिणाम शील बन जाता है, आचरण बन जाता है।
लेकिन क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है-यह वे कैसे जानेंगे जो स्वयं को भी नहीं जानते? जो स्वयं को नहीं जानते हैं वे सार्थक को कैसे जानेंगे? सार्थक वही होगा, जो स्वरूप के अनुकूल हो। सार्थक वही होगा, जो स्वरूप के प्रति संगतिपूर्ण हो। व्यर्थ वह होगा, जो स्वरूप के प्रतिकूल हो। व्यर्थ वह होगा, जो स्वरूप के प्रति विरोध से भरा हो। व्यर्थ वह होगा, जो स्वरूप को गलत ले जाता हो।
असल में दुख का और कोई अर्थ नहीं है। स्वरूप के प्रति जो प्रतिकूलता है, वही दुख है। स्वरूप के प्रति जो अनुकूलता है, वही आनंद है। जिस क्षण मैं अपने को स्वरूप के अनुकूल पाता हूं, आनंदित हो जाता हूं। जिस क्षण स्वरूप के प्रतिकूल पाता हूं, दुखी हो जाता हूं। दुख का अर्थ है कि कुछ प्रतिकूल है, जो मैं नहीं चाहता कि हो, और हो रहा है। आनंद का अर्थ है कि कुछ हो रहा है, जो मैं चाहता हूं कि हो, जो मेरे अनुकूल है।
प्रतिकूलता दुख है, अनुकूलता सुख है।
अगर मुझे स्वरूप का पता न हो तो क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है, यह दिखाई नहीं पड़ सकता। स्वरूप-बोध जीवन में सार्थकता का और व्यर्थता का इंगित स्पष्ट कर जाता है। यह जानना धर्म की बुनियादी, केंद्रीय बात है कि मैं कौन हूं।
विज्ञान पदार्थ को जानता है, पदार्थ क्या है। विज्ञान पदार्थ के रहस्य को खोदता है कि उसके क्या नियम हैं, क्या रहस्य, क्या राज हैं। धर्म चैतन्य को खोजता है, स्व को खोजता है-उसका क्या रहस्य है। पदार्थ के अंतिम विश्लेषण पर अणु उपलब्ध हुआ है। और अणु की उपलब्धि घातक हो गई है, विस्फोटक हो गई है। हो सकता है सारे मनुष्य को ले डूबे। चैतन्य का विश्लेषण आत्मा को उपलब्ध किया है। पदार्थ के विश्लेषण से अणु उपलब्ध हुआ है, चैतन्य के विश्लेषण से आत्मा उपलब्ध हुई है।
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