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संसार से मुक्त नहीं होना है, विचार से मुक्त होना है।
महावीर मुक्त होने के बाद भी संसार में हैं, संसार में जीए चालीस वर्ष तक। बुद्ध मुक्त होने के बाद संसार में जीए तीस वर्ष तक। संसार में तो थे। फिर हो क्या गया था उनमें?
वे तो संसार में थे, लेकिन संसार उनमें नहीं था।
वे तो संसार में थे, लेकिन संसार उनमें नहीं था। हमारे भीतर संसार के होने का स्थान विचार है। हमारे भीतर संसार की प्रतिछवि विचार में बनती है। हमारे भीतर विचार है गृह संसार
का। इसलिए विचार के गृह को तोड़ देना संन्यास है। विचार के गृह में बंद होकर रहना गृहस्थ होना है। भीतर विचार की दीवाल हमें घेरे हुए है। चौबीस घंटे उठते-बैठते सोते-जागते विचार का सतत प्रवाह हमें घेरे हुए है। वही विचार हमारी अशांति है, वही विचार हमारी उत्तेजना है, वही विचार हमारी उद्विग्न स्थिति है, वही विचार हमारी ज्वरग्रस्त स्थिति है। इस विचार के विसर्जन से. इस विचार के शांत होने से. इस विचार के ऊहापोह और तरंगों के विलीन होने से भीतर एक शांति का दर्पण, भीतर एक शांत चैतन्य की स्थिति उत्पन्न होती है। उसी शांति में, उसी अनुद्विग्न स्थिति में स्वयं का साक्षात होता है।।
मैंने कहा, हम पर के साथ इतने व्यस्त हैं कि स्व का स्मरण ही भूल गए हैं। अगर हम पर के साथ अव्यस्त हो जाएं, अगर पर थोड़ी देर को हमारे भीतर से अनुपस्थित हो जाए, तो स्व का उदघाटन हो जाएगा।
इस हॉल में हम सारे लोग बैठे हुए हैं। हमने, हॉल में जो रिक्त स्थान है, उसको भर दिया है। वह रिक्त स्थान कहीं गया नहीं है, कहीं बाहर नहीं निकल गया है। आप जब भीतर आए तो हॉल का रिक्त स्थान बाहर नहीं निकल गया। अगर उस रिक्त स्थान को वापस उपलब्ध करना हो, तो कहीं बाहर से लाना नहीं पड़ेगा। अगर हम बाहर हो जाएं तो हॉल वापस रिक्त हो जाएगा। अगर हम बाहर हो जाएं तो रिक्त स्थान मौजूद है। वह हमसे दब गया है, वह हमसे भर गया है, हमारे निकलते ही वापस रिक्तता को उपलब्ध हो जाएगा।
स्व का स्मरण पर के चिंतन से दब गया है, भर गया है। अगर पर का चिंतन विसर्जित हो जाए, तो स्व उदघाटित हो जाएगा।
स्व कहीं गया नहीं, स्व निरंतर उपस्थित है-केवल पर से आच्छादित है। पर के आच्छादन को तोड़ने का मार्ग समाधि है, पर के आच्छादन को विच्छिन्न करने का मार्ग ज्ञान है। इसलिए चाहे धर्म कोई हो-जैनों का, बौद्धों का, हिंदुओं का, ईसाइयों का-धर्म के चाहे कोई भी रूप हों, लेकिन धर्म के भीतर की प्रक्रिया एक ही है : आच्छादन को विच्छेद कर देने की; वह जो हम पर छा गया है, उसे विसर्जित कर देने की; जो हम पर घिर गया है, उस बदली को तोड़ देने की, ताकि भीतर से प्रकाश वाले सूरज का उदय हो। एक ही छोटे से सूत्र में समस्त धर्मों का सार संगृहीत है। हम शून्य हो जाएं तो पूर्ण के हमें दर्शन हो जाएंगे। हम शून्य हो जाएं तो हम समाधि में पहुंच गए।
कैसे शून्य हो जाएं? एक छोटा सा विचार भी तो छोड़ा नहीं जाता, समस्त विचार की प्रक्रिया कैसे छूटेगी? स्वाभाविक है कि स्वयं से आप पूछे कि एक छोटा सा विचार-कण तो मन से निकलता नहीं, पूरे विचार की प्रक्रिया कैसे निकलेगी?
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