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अगर हम महावीर के इस केंद्रीय विचार को समझें-आत्म-उपलब्धि को-इस पर थोड़ा चिंतन करें, इस पर थोड़ा मनन करें और इस बात को समझें कि चित्त हमारा संसार है।
और चित्त को धीरे-धीरे विसर्जित करें, चित्त को धीरे-धीरे विलीन करें, चित्त को धीरे-धीरे शून्य की तरफ ले चलें। एक घड़ी आएगी, चित्त शून्य हो सकता है।
__ अगर उसके साथ असहयोग करें-जैसा मैंने सुबह कहा, नॉन-कोआपरेशन-अगर चित्त के विचारों के साथ नॉन-कोआपरेशन करें, उसके साथ सहयोग न करें। विचार आते हों, आने दें, आप सहयोग न दें। अपने को दूर खड़ा कर लें, जैसे आप केवल तटस्थ द्रष्टा मात्र हैं। विचार को चलने दें, आप चुपचाप देखते रहें, कोई सहयोग न दें। आपका सहयोग ही विचार की शक्ति है।
वह जो फिल्म पर चित्र चलते हैं, उन्हें देख कर जो आप रोते हैं, चित्र आपको नहीं रुला रहे हैं। आप ही चित्रों से जो अपने को संयुक्त कर रहे हैं, उससे रुदन आ रहा है। अगर आप होश में भरे हों और जानें कि पर्दे पर केवल चित्र हैं, आपका तादात्म्य उनसे न हो, आप तटस्थ द्रष्टा मात्र हों, भोक्ता न हो जाएं, आप उस नाटक के हिस्से न हो जाएं, केवल साक्षी मात्र हों, केवल विटनेस मात्र हों, तो आप हैरान होंगे, चित्र चले जाएंगे पर्दे पर आकर, आप वैसे के वैसे बैठे हैं जैसे बैठे थे। आप में कोई राग, कोई द्वेष उदय नहीं हुआ। आपको कोई रुदन और हास्य नहीं पकड़ा। आप मौन, तटस्थ, द्रष्टा मात्र हैं। जो इस भांति विचार को देखेगा, असहयोग से, तटस्थ द्रष्टा मात्र होकर, वह क्रमशः विचार-मुक्ति को उपलब्ध होता है। जो विचार-मुक्ति को उपलब्ध होता है, वह आत्म-दर्शन कर सकता है।
महावीर एक ही शब्द हैं, एक ही शब्द में उनकी समस्त साधना है, और वह शब्द है-आत्म-दर्शन। उस एक शब्द को जो उपलब्ध हो जाए, वह उसको अनुभव कर पाएगा, किस महत्वपूर्ण, किस वैज्ञानिक सत्य को उन्होंने हमें दिया है। और हम इतना कर रहे हैं कि उनकी रख कर पूजा कर रहे हैं! और उनके ग्रंथों को रख कर सिर पर चल रहे हैं! और उनके शास्त्र-वचनों को दीवालों पर लिख रहे हैं! आश्चर्यजनक है कि हम अपने सदपुरुषों के साथ कैसा अन्याय करते हैं! हम सोचते हैं, हम उनका सम्मान कर रहे हैं। हमारा सब सम्मान उनका अपमान है। क्योंकि मूलतः वे जो कह रहे हैं, हम सब उसके विपरीत कर रहे हैं।
महावीर का सम्मान एक ही बात में है कि आत्म-ज्ञानी बनो। महावीर का स्मरण नहीं। मत करो स्मरण, उससे कोई संबंध नहीं है। अगर आत्म-ज्ञानी बनते हो, तो स्मरण करो या न करो, तुम महावीर के हो गए। और तुम महावीर का लाख स्मरण करो और आत्म-ज्ञानी नहीं बनते, तो तुम महावीर के नहीं हो। जिसको महावीर का होना है, उसे महावीर की फिकर छोड़ देनी चाहिए और उसकी फिकर करनी चाहिए, जो भीतर बैठा है। और जिसने उसकी फिकर छोड़ी, वह महावीर को कितना ही लिए फिरे, वह महावीर का नहीं हो सकता है। इस एक सत्य को हम स्मरण रखें।
जगत में जो लोग भी जाग्रत हुए हैं, जिन्होंने अपने को जाना है, उनकी शिक्षा एक छोटी सी बात में है, और वह यही है : आनंद भीतर है, भीतर लौटें। भीतर लौटने का उपाय : चित्त को विसर्जित करें, चित्त के प्रति तटस्थ द्रष्टा बनें, दर्शक बनें।
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