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प्रेम परीक्षा और प्रमाण है। उसे महावीर ने अहिंसा कहा है।
अहिंसा का मतलब इतना नहीं है कि दूसरे को दुख मत पहुंचाओ। जबरदस्ती दूसरे को कोई दुख पहुंचाने से रुक जाए, तो वह अपने को दुख पहुंचाना शुरू कर देता है। दुख पहुंचाने की इतनी इच्छा रहती है कि अगर दूसरे को दुख पहंचाने से जबरदस्ती रुक जाएं, तो आप अपने को दुख पहुंचाना शुरू कर देंगे। ऐसे फकीर और साधु हुए हैं, जो अपने शरीर को इसलिए सता रहे हैं कि सताने का जो मजा वे दूसरों पर ले सकते थे, वह मजा उन्होंने बंद कर दिया है। वे अपने शरीर को सता रहे हैं। ऐसे फकीर हुए हैं कि जो अपने पेट में, अपनी कमर में कांटों के पट्टे पहने रहेंगे, ताकि कांटे उनकी कमर में घुसते रहें और घाव बना रहे। ऐसे फकीर हुए हैं, जो जूतों में उलटी खीलियां लगा लेंगे, ताकि पैरों में घाव बने रहें और उन घावों में से हमेशा रक्त बहता रहे। ऐसे फकीर हुए हैं, जो अपनी जननेंद्रियां काट लेंगे, अपनी आंखें फोड़ लेंगे।
___ इन पागलों को कोई साधु कहेगा? ये वे लोग हैं, जिन्होंने हिंसा की वृत्ति को बाहर जबरदस्ती रोक लिया है। लेकिन वेग रुकते नहीं हैं, अगर बाहर जाने से रोक देंगे, वे खुद पर पलट जाते हैं। जो आदमी जबरदस्ती बाहर हिंसा रोकेगा, वह आत्म-हिंसा में लग जाता है। वह अपने पर हिंसा करना शुरू कर देता है।
महावीर आत्म-हिंसा को नहीं कह रहे। इसलिए महावीर हिंसा त्याग को नहीं कह रहे हैं। महावीर से किसी ने पूछा, अहिंसा क्या है? तो महावीर ने कहा, आत्मा अहिंसा है।
बड़ा ही अदभुत उत्तर दिया। और इससे गहरा कोई उत्तर जमीन पर आज तक नहीं दिया गया है। बड़ा अजीब, असंगत मालूम होता है। हम पूछते हैं, अहिंसा क्या है? महावीर कहते हैं, आत्मा अहिंसा है! मतलब क्या है?
___ मतलब यह है कि जो आदमी अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाएगा, वह आदमी अहिंसा को उपलब्ध हो जाएगा। और जो आदमी अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित नहीं है, वह केवल हिंसा निरोध कर सकता है, अहिंसा को नहीं पा सकता है। हिंसा छोड़ देनी एक बात है, अहिंसा पा लेनी बिलकुल दूसरी बात है। अहिंसा बहुत पाजिटिव है, बहुत विधायक है। और विधायक है, इसलिए मैंने कहा प्रेम है।
तो महावीर की साधना दो शब्दों में बंटी है : सत्य और अहिंसा।।
सत्य को पाना हो, तो महावीर कहते हैं, सब छोड़ कर अपने भीतर प्रविष्ट हो जाओ। महावीर कहते हैं, जो भी मूर्त है, उसे छोड़ दो। आंख से जो दिखाई पड़ता है, आंख में इतने गहरे प्रविष्ट हो जाओ कि वहां कुछ दिखाई न पड़े। कान से सुनाई पड़ता है, कान में इतने गहरे प्रविष्ट हो जाओ कि वहां कुछ सुनाई न पड़े। पांचों इंद्रियों से जो घटित होता है, उसमें इतने गहरे प्रविष्ट हो जाओ कि वहां किसी इंद्रिय का कोई प्रभाव न पहुंचता हो। उस अवस्था में, जहां इंद्रियों का कोई प्रभाव नहीं पहुंचता, अतीन्द्रिय चेतना में प्रवेश शुरू होता है। जहां सब मूर्त प्रभाव क्षीण हो जाते हैं, जहां कोई मूर्त खबर नहीं पहुंचती, जहां जगत का कोई समाचार नहीं पहुंचता, वहां व्यक्ति अपने से संबंधित और अपने में प्रतिष्ठित होता है। वहां वह स्वयं को जानता है। स्वयं को जानना है तो समस्त पर से विमुक्त, समस्त पर से दूर हट जाओ, भीतर प्रविष्ट हो जाओ। उस एकांत तनहाई में अपने को जाना जा सकता है।
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