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हम
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सब प्यासे हैं आनंद के लिए, शांति के लिए। और सच तो यह है कि जीवन भर जो हम दौड़ते हैं धन के पद के, प्रतिष्ठा के पीछे, उस दौड़ में भी भाव यही रहता है कि शायद शांति, शायद संतृप्ति मिल जाए। वासनाओं में भी जो हम दौड़ते हैं, उस दौड़ में भी यही पीछे आकांक्षा होती है कि शायद जीवन की संतृप्ति उसमें मिल जाए, शायद जीवन आनंद को उपलब्ध हो जाए, शायद भीतर एक सौंदर्य और शांति और आनंद के लोक का उदघाटन हो जाए।
लेकिन एक ही निरंतर इच्छा में दौड़ने के बाद भी वह गंतव्य दूर रहता है, निरंतर वासनाओं के पीछे चल कर भी वह परम संतृप्ति उपलब्ध नहीं होती है!
लोग हैं, धार्मिक कहे जाने वाले लोग हैं, जो कहेंगे, वासनाएं बुरी हैं; जो कहेंगे, वासनाएं त्याज्य हैं; जो कहेंगे, समस्त वासनाओं को छोड़ देना है; जो कहेंगे, वासनाएं अधार्मिक हैं। मैं आपसे कहूं, कोई वासना अधार्मिक नहीं है, अगर हम उसे देख सकें, समझ सकें। समस्त वासनाओं के भीतर अंततः प्रभु को पाने की वासना छिपी है। एक व्यक्ति को धन देते चले जाएं और उससे कहें कि कितने धन पर वह तृप्त होगा ? हम कितना भी धन दें, उसकी आकांक्षा तृप्त न होगी। कितना ही धन दें ! सारे जगत का धन उसे दे दें... ।
सिकंदर भारत की तरफ आता था। किसी ने उससे पूछा कि तुम अगर पूरी जमीन जीत लोगे तो फिर क्या करोगे? उसने कहा, मैं दूसरी जमीन की तलाश करूंगा। और अगर हम पूछें, दूसरी जमीन भी जीत लोगे तो फिर क्या करोगे? वह कहेगा, मैं तीसरी जमीन की तलाश करूंगा। और हम कहें, तुम सारी जमीनें जीत लोगे तो फिर क्या करोगे ?
असल में वासना अनंत को पाने के लिए है, इसलिए किसी भी जमीन को पाकर तृप्त नहीं होगी। कितना ही धन दे दें, वासना तृप्त न होगी, क्योंकि वासना अनंत धन को पाने के लिए है। कितना ही बड़ा पद दे दें, आकांक्षा तृप्त न होगी, क्योंकि आकांक्षा परम पद को पाने के लिए है। कितना ही जीवन में उपलब्ध हो जाए, जीवन संतृप्त न होगा, तृप्त न होगा, क्योंकि परम जीवन, परम प्रभुता को पाए बिना मनुष्य के भीतर तृप्ति असंभव है।
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