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एक छोटी सी कहानी आपसे कहूं-एक बिलकुल काल्पनिक कहानी, कहीं सुना था, फिर बहुत प्रीतिकर लगी।
ईश्वर ने यह देख कर कि मनुष्य को यह क्या हुआ जा रहा है, यह मनुष्य अपने हाथ से अपनी मृत्यु के आयोजन में इतना उत्सुक क्यों हो गया है, दुनिया के तीन बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाया। मैंने कहा, कहानी काल्पनिक है, झूठी; कहीं कोई ईश्वर ऐसा बुलाने को नहीं है, पर कहानी में एक सत्य बहुत उभर कर जाहिर हुआ है। उसमें अमरीका को, ब्रिटेन को, रूस को बुलाया था। इन मुल्कों के प्रतिनिधि उससे मिलने गए थे। ईश्वर ने कहा, मेरे मित्र! बहुत सदियां देखीं। मनुष्य का लंबा इतिहास देखा। इतना विक्षिप्त इतनी समृद्धि के बीच, इतनी शक्ति के बीच, अपने को ही आत्मघात करने वाला कोई जमाना मैंने नहीं देखा है! मैं हैरान हूं, तुम यह क्या कर रहे हो? तुम्हारे किए का अंतिम परिणति और परिणाम क्या होगा? अगर मैं कुछ सहायक हो सकू और मनुष्य बच सके, तो मुझसे वरदान मांग लो। मैं अगर मनुष्य के भविष्य के लिए कुछ कर सकू, तो वरदान देने को तैयार हूं। तुम तीनों मांग लो तीन वरदान। मनुष्य बच जाए, यही मेरी आकांक्षा है।
अमरीका के प्रतिनिधि ने कहा, मेरे मालिक! इससे सुखद और क्या होगा, एक वरदान दे दें। और हमें कुछ भी नहीं चाहिए, एक ही आकांक्षा है हमारी ः जमीन तो हो, लेकिन जमीन पर रूस का कोई निशान न रह जाए। ईश्वर ने वरदान दिए होंगे बहुत, बहुत मांगें पूरी की होंगी, ऐसी मांग कभी उसके सामने आई नहीं थी। उसने उदास घूम कर रूस के प्रतिनिधि की तरफ देखा। वह बोला, महानुभाव! एक तो हमें आप पर कोई विश्वास नहीं है। एक तो हम नहीं मानते कि कहीं कोई ईश्वर है। लेकिन मान लेंगे तुम्हें भी और उन चर्चों में जहां से तुम्हारे सब निशान मिटा दिए गए हैं, वापस तुम्हें प्रतिष्ठित कर देंगे, एक बात, एक आकांक्षा पूरी हो जाए। ईश्वर ने पूछा, कौन सी आकांक्षा? रूस के प्रतिनिधि ने कहा, नक्शे तो हों जमीन पर, नक्शे तो हों दुनिया के, अमरीका के लिए कोई रंग-रेखा न रह जाए। ईश्वर ने घूम कर ब्रिटेन को देखा। ब्रिटेन के प्रतिनिधि ने कहा, मेरे प्रभु! हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं, इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ परी हो जाएं हमारी आकांक्षा परी हो जाएगी।
ऐसी सदी को होश में कहिएगा? ऐसे मनुष्य को जागा हुआ कहिएगा? ऐसे युग को स्वस्थ कहिएगा? विक्षिप्त है यह युग। और इस सत्य को हम जितना शीघ्र समझ लें, उतना उचित है, अन्यथा अपने ही विक्षिप्त आयोजन हमारी मृत्यु बन जा सकते हैं। यह विक्षिप्तता कैसे
पैदा हो गई है? यह पागलपन कैसे आ गया? और क्या ऊपर का कोई उपचार और अहिंसा पर दिए गए प्रवचन और अहिंसा पर लिखा गया साहित्य और अहिंसा के पक्ष में बोली गई बातें इस विक्षिप्तता को तोड़ सकेंगी?
यह विक्षिप्तता टूट जानी इतनी आसान नहीं है। यह विक्षिप्तता ऊपर से आरोपित नहीं है, यह विक्षिप्तता कहीं भीतर से विकसित हुई है। इस विक्षिप्तता की कहीं मनुष्य के मन में, बुनियाद में जड़ें हैं। मनुष्य की प्रकृति में कुछ है, जहां से यह विक्षिप्तता फैलती और विकसित होती है। जब तक उसकी प्रकृति में परिवर्तन करने का विचार, विवेक, जागृति पैदा न हो, जब तक उसकी प्रकृति में जो पशु है, उसके विनाश का कोई आयोजन न हो, तब तक मनुष्य के
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