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ID प्रिय आत्मन्!
मैं देश के कोने-कोने में गया हूं। हजारों आंखों, लाखों आंखों में देखने का मौका
मिला है। जैसे मनुष्य को देखता हूं-ऊपर हंसने की, आनंद की, सुख की एक झलक दिखाई पड़ती है, पर पीछे घना दुख, बहुत दुख दिखाई पड़ता है। और इस दुख का परिणाम यह हुआ है, इस दुख का फलित यह हुआ है कि सारी पृथ्वी धीरे-धीरे दुख से भर गई है। यदि एक भी व्यक्ति दुखी है, परिणाम में अपने बाहर दुख को फेंकता है। व्यक्ति का दुख ही फैल कर सारे जगत का दुख हो जाता है। एक व्यक्ति के भीतर से जो दुख का धुआं उठता है, वह सारी समष्टि को दुख और पीड़ा से भर देता है। आज जो सारे जगत में दुख, पीड़ा और हिंसा मालूम होती है, वह जो विनाश के प्रति इतनी आकांक्षा मालूम होती है, जो विनाश के प्रति इतनी आकांक्षा मालूम होती है, उसके पीछे एक ही कारण है, व्यक्ति की अंतरात्मा दुखी है।
__मैं यदि दुखी हूं, तो मैं किसी को भी दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकता। मेरे भीतर जो है, वही मेरे बाहर, मेरे आचरण में, मेरे व्यवहार में फैल जाता है। मेरे भीतर केंद्र पर जो है, वही मेरी परिधि पर आ जाता है। ढाई अरब लोग अगर भीतर दुख और पीड़ा से भरे हों, तो परिणाम में स्वाभाविक है कि सारा जगत दुख और पीड़ा से भर जाए। परिणाम में स्वाभाविक है कि सारे जगत में हिंसा और विनाश दिखाई पड़े।
__पिछले पचास वर्षों में दो महायुद्ध हमने लड़े। दो महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हत्या हुई। इससे मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता और न मैं इससे बहुत हैरान हूं कि दस करोड़ लोग मरे। इस जगत में जो पैदा होता है, मर जाता है। हैरानी इस बात की है कि हम दस करोड़ लोगों को शांति से समाप्त कर सके। उनके मरने का प्रश्न नहीं है। वे दिन, दो दिन बाद मर जाने को थे। कोई भी जीएगा नहीं, लेकिन हम ये सभी दस करोड़ लोगों की हत्या शांति से कर सके, यह बहुत विचारणीय है। हमारे भीतर पशु इतना जाग्रत कैसे हो गया? हमारे भीतर निकृष्टतम, हमारे भीतर अंधेरा इतना मुखर क्यों हो गया? मनुष्य को क्या हो गया है, यह विचारणीय हो गया है। और अब, जब कि हम तीसरे विनाश की तैयारी में हों, जो कि संभवतः अंतिम विनाश होगा।
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