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[ महामणि चिंतामणि
एक बार वमन किए गए भोगों को पुनः मत पी, स्वीकार मत कर। गौतम ! अनगार धर्म के सम्यक् अनुष्ठान में समय मात्र का प्रमाद मत कर।
गौतमस्वामि विवाहित थे या अविवाहित, ये कोई जगह उल्लेख नहीं मिलता; पर जैन धर्म के मूल आगम में उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट आता है कि गौतमस्वामि विवाहित थे अर्थात् उनकी पत्नी थीं। देखिए :
चार वेद, शिक्षा, शिल्प, कल्प, व्याकरण, मीमांसा, न्याय एवं धर्मशास्त्र-पुराणों के अध्येता गौतम ने जब भगवान के समीप दीक्षा ग्रहण की उस समय उनके पास ५०० शिष्यों का परिवार था। ऐसे महापुरुष ने अपने जीवन में हजारों शिष्यों को विद्यादान दिया होगा। अनेक देशों में भ्रमण कर उन्होंने सैंकडों विद्वानों को शास्त्रार्थ कर जीता था।
भगवान महावीरस्वामि और गणधर गौतमस्वामि के बीच आदि से अन्त तक पूर्वभव का स्नेहसम्बन्ध रहा है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से एक बार भरत चक्रवर्ती ने पूछा-"प्रभु ! क्या आपकी परंपरा में होने वाले किसी तीर्थंकर का जीवन आपके समवसरण में है ?" तब प्रभु ने कहा कि "भरत! इस समवसरण के बाहर तेरा पुत्र मरीचिं जो अभी त्रिदंडी संन्यासी बन कर बैठा है, वह चौबीसवाँ तीर्थंकर होगा।" मरीचि ने भगवान ऋषभदेवके पास ही मुनि-दीक्षा ग्रहण की थी परंतु संयमजीवन के दृढ़ नियमों के परिपालन में असमर्थ मरीचि ने सुखशील संन्यासी परंपरा का सूत्रपात किया। फिर भी मरीचि अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उपदेश देकर भगवान ऋषभदेव के पास जैन मुनि दीक्षा ग्रहण हेतू भेजता था। एक बार मरीचि बीमार पड़ा। साधु परंपरा से च्युत होने के कारण किसी भी निग्रंथ मुनि ने उसकी सेवा, सार-संभाल नहीं की। इस से मन में खेद हुआ और मन में निश्चय किया कि स्वस्थ होने पर मैं भी किसी को शिष्य बनाऊँगा, जो कि वृद्धावस्था में मेरी सेवा कर सकेगा। कुछ समय बाद मरीचि स्वस्थ हो गया।
एक दिन कपिल नाम का एक कुलपुत्र उसके पास आया। उपदेश के द्वारा उसमें धर्मभावना जाग्रत कर उसे अपना शिष्य बनाया। कपिल की अपने गुरु मरीचि पर अत्यंत श्रद्धा
और भक्ति थी। वह रात-दिन खड़े पैर रह कर उनकी सेवा करता था। मरीचि को भी अपने शिष्य पर अत्यंत स्नेह था। कपिल और मरीचि का प्रेम इतना सघन था कि मानों एक शरीर की दो छायाएं हो। यहीं से भगवान महावीर और गौतम का सम्बन्ध शुरू होता है। कपिल ही गौतम का जीव था।
भगवान महावीरस्वामि के पूर्व में त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में गौतम का जीव सारथि के रूपमें साथ रहा। और अन्त में गुरु-शिष्य के रूपमें महावीर-गौतम की जोडी पुनः मिली। केवल्यज्ञान के बाद धर्मतीर्थ की स्थापना के अवसर पर भगवान महावीरस्वामि के पास गौतम ने आत्मा सम्बन्धी संशय का निवारण प्राप्त कर प्रथम गणधरपद प्रभु के हाथों प्राप्त किया था। ग्यारह गणधरों के ४४०० शिष्यों के वे नायक थे। तीर्थंकर परमात्मा का अतिशय प्रभाव होता है, कि वे जब अपने धर्मतीर्थ की स्थापनार्थ गणधरों पर वासक्षेप डालते हैं तब पांच ज्ञानों में से १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान और ४ मनःपर्यवज्ञान - इन चार ज्ञानों की उन्हें पूर्ण प्राप्ति हो जाती है।