Book Title: Mahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Author(s): Nandlal Devluk
Publisher: Arihant Prakashan

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Page 815
________________ श्री गुरु गौतमस्वामी ] [८१६ 0 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 में कुछ बातों को लेकर आचारभेद व विचारभेद था। ज्यों ही दोनों गणधर एक दूसरे के परिचय में आये, तो उनके मन में यह प्रश्न खड़ा हुआ-'एक ही लक्ष्य की साधना में यह भेद (अन्तर) क्यों है?' - केशीकुमार श्रमण को पार्श्वनाथ की परंपरा का, अतएव ज्येष्ठ समझकर गौतम अपने शिष्यों के साथ श्रावस्ती के तिन्दुक उद्यान में आये, जहाँ केशीकुमार श्रमण ठहरे हुए थे। महाप्राज्ञ गौतम का केशीकुमार ने योग्य स्वागत किया। केशीकुमार ने गौतम से पूछा-"जब कि सभी लक्ष्य एक हैं, तब हमारी साधना में इतनी विभिन्नता क्यों है? जैसे अचेलक-सचेलक तथा चातुर्याम और पंचमहाव्रत रूप साधना की ?" गौतमने समादर के साथ कहा-"भंते! हमारा मूल लक्ष्य एक है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो विविधता है, वह समय की बदलती हुई गति के कारण है। बाह्याचार और वेष का प्रयोजन मात्र लोकप्रतीति है। भक्ति के वास्तविक साधन तो ज्ञान-दर्शन और चारित्र ही हैं।" । तदन्तर केशी गणधर ने अपनी कुछ जिज्ञासाओं का समाधान मांगा, जिस का स्पष्टीकरण गौतम गणधर ने सविस्तार दिया : (१) पहला प्रश्न केशीस्वामी का चातुर्याम धर्म और पंचशिक्षात्मक (महाव्रत) धर्म के अंतर के संबंध में था। गौतमस्वामी ने उत्तर दिया-"तत्त्व का निर्णय जिसमें होता है, ऐसे धर्मतत्त्व की समीक्षा प्रज्ञा करती है। प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं। अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्र व जड़ होते हैं। बीच के २२ तीर्थंकरों के साधु ऋजु व प्रज्ञ होते हैं। अतः धर्म दो प्रकार से कहा है। बीच के २२ तीर्थंकरों के द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना, और उसका पालन करना सरल है। लेकिन चरम तीर्थंकर के मुनियों द्वारा आचार को यथावत् ग्रहण व पालन करना कठिन होने से ही कुछ कठिन नियमों का समावेश किया गया है। जिससे उनकी अनुपालना उन्हें आवश्यक रूप से करनी पड़े।" ___ केशी गणधर का सन्देह दूर हुआ। उन्होंने गौतम गणधर की प्रज्ञा की प्रशंसा की। उत्तरोत्तर ११ प्रश्न उन्होंने और पूछे - (२) दूसरा प्रश्न अचेलक धर्म व सान्तरोत्तर (वर्णादि से विशिष्ट एवं मूल्यवान वस्त्रवाला) धर्म के विषय में था। केशी को उत्तर देते हुए गौतम कहते हैं - "विशिष्ट ज्ञान से अच्छी तरह धर्म के साधनों को जानकर ही उनकी अनुमति दी गई है। नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना लोगों की प्रतीति के लिये है। संयमयात्रा के निर्वाह के लिये, और 'मैं साधु हूँ'-यथाप्रसंग इस का बोध रहने के लिए ही लिंग का प्रयोजन है। वास्तव में दोनों तीर्थंकरो का एक ही सिद्धांत है कि मोक्ष के वास्तविक साधन (सम्यक्-) ज्ञान-दर्शन और चारित्र हैं!" (३) “गौतम! अनेक सहस्र शत्रुओं के बीच तुम खड़े हो। वे तुमको जीतना चाहते हैं। तुमने उन्हें कैसे जीता?" “एक आत्मा को जीतने से पाँच इंद्रियाँ और चार कषाय मिलकर दस को जीतकर, मैं हजारों शत्रुओं को जीतता हूँ। तथा धर्मनीति के अनुसार विचरण करता हूँ।

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