Book Title: Mahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Author(s): Nandlal Devluk
Publisher: Arihant Prakashan

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Page 824
________________ ६२८] [ महामणि चिंतामणि जायेंगे। आचार्यदेव श्रीमद् विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी म. सा. ने अपनी चिन्तनरश्मियों में गौतम स्वामी के कैवल्य महोत्सव का वर्णन इस तरह किया है 'प्रभु का निर्वाण सुनकर किया था गौतमने चिन्तन, विरह में क्रन्दन हा! ममाराध्य! वीतराग! मुझसे क्यों विराग, मुझे नहीं चाह मोक्ष की। मेरे तो शरण थे आप, चाहना थी मात्र सांनिध्य की ॥ हे संयम निवारक करेगा कौन निरुत्तर अज्ञानरिपु को। चिंतन में भावों की गौतम गंगा में मिला आत्मबोध, हटा मोह क्षोभ स्वयं प्राप्त हुए कैवल्य को ॥ गौतम की आत्म-ज्योति विश्व के संपूर्ण पदार्थों के सूक्ष्म सत्य का अवलोकन करने में तथा जीवन के रहस्यों को जानने में शाश्वत समर्थ हो गयी। आत्मकल्याण करने के बाद उन्होंने जगतकल्याण के लिए प्रस्थान किया। संस्कृति के संवाहक भगवान महावीर जैसे सबल आधार के हिल जाने से एक बार संघ की नौका का डगमगाना स्वाभाविक था। मगर दृढ मनोबल के स्वामी एवं कर्तव्य निर्वहन में पूर्ण जागरूक गौतमस्वामी ने संघ का संपूर्ण उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लिया। गणधर गौतमस्वामी ने साधु जीवन को तीर्थदेव महावीर के सहिष्णुता, आत्मोपलब्धि, धृति, निर्भीक चिन्तन के प्रति गौतम की अगाध आस्था थी। आस्था का बल जिसके पास हो वह क्या नहीं कर सकता? गौतम की ग्रहणशीलता और वीर प्रभु की सृजनधर्मिता के अन्योन्याश्रित संयोग से जीवन की अज्ञान-अविकसित शक्तियों को स्फुरित करने में, लोक, लोकोत्तर, धर्म-मर्म, स्व-पर सम्यक् स्वरूप और संबंध का साक्षात्कार करने में गौतम समर्थ होने लगे। ज्ञान और नम्रता, त्याग और ग्रहणता, साधना और श्रद्धा, गुणज्ञता और उदारता, आदर्शवादिता और अकिंचनता का भीतरी परिवेश में समन्वय होते ही लौकिक व बोद्धिक विद्याओं का यह पारगामी विद्वान आहेत विद्या के भी याज्ञवल्क्य नदीणण ज्ञाता बन गये। स्वार्थ जब परमार्थ हुआ तब गौतम के व्यक्तित्व में आध्यात्मिक योगी की शुद्ध व्यक्तिवादी दृष्टि झलकने लगी, कृतित्व में एक समाज विधायक का | समूहवादी चिन्तन निखरने लगा। प्रभु की उपासना, उनका सान्निध्य, उनके अर्हत के स्वरूप का अनुसंधान करना जिससे गौतम प्रभु के दर्शन-चिन्तन सफल भाष्यकार, स्वपन आकार देने वाले मूर्तिकार शीघ्र ही बन बैठे। महामुनि गौतम ने अपने इष्टदेव के विचारों के साथ सैद्धान्तिक सामंजस्य स्थापित कर संतुलित किया साथ ही साथ प्रभु के उपदेशों को तुलनात्मक, व्यावहारिक दृष्टि से विस्तृत विवेचन के साथ प्रतिपादन कर उनका औचित्य सिद्ध किया। अपूर्णमेधा प्रत्युत्पन्नमति और अनुपम ग्रहणशक्ति से प्रभुदेशना को अवधारण करके बारह अंग और चौदह पूर्व के रूप में निबद्ध किया, द्वादशांगी में गुम्फन किया। ऐसी सूक्ष्म मनीषा, ऐसा विशद विश्लेषण! सर्वेश भगवान को पाकर गौतम की चेतना ने त्राण का अनुभव किया, गौतम को पाकर प्रभु की चेतना ने ठोस आधार पा लिया। "महात्सगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोधशच" युगद्रष्टा प्रभु वीर | के सांनिध्य में रहते तीस वर्ष का समय बीत गया, धीरे-धीरे गौतम की भक्ति श्रद्धा, ममत्व में बदलने लगी। प्रभु उनके हृदय में ही विराजमान, जीवन में ही प्रतिष्ठान नहीं हुए, उनके सांस सांस में परिव्याप्त हो गये। महावीर के प्रेम में गौतम इतने भावुक और संवेदनशील हो गये कि

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