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में सम्मिलित हो जाता है। आत्मसिद्धि शास्त्र में सारी शंकाओं का समाधान विवेचन नहीं करते हैं क्योंकि समय कम है।
[ महामणि चिंतामणि
अतः हम यहाँ
इस तरह भगवान के पास सभी दीक्षित बने और बादमें चंदनबाला आदि बहुतसी महिलाएँ वहाँ उपस्थित हुईं, भगवान से दीक्षा ली । श्रमण समुदाय बना चतुर्विध संघ की स्थापना शंख आदि श्रावक और श्राविओं का समुदायसे हो गया। जिसे चतुर्विध संघ कहते हैं तीर्थ याने जिसका आधार तिरा जाय-संसारसमुद्रको पार किया जाय उसे तीर्थ कहते हैं और उसे बनाने वाले तीर्थंकर जिनके माध्यम से संसारसमुद्र पार उतरते हैं वह तीर्थंकर पद एक विशेष पद है। इस लिए केवलियों में भी यह विशेष पद है तीर्थंकर केवली और वे कहलाते हैं सामान्य केवली । चतुर्विध संघ स्थापन कर भगवान ३० वर्ष विश्वकल्याण हेतु उदयानुसार विचरे । गौतमस्वामी भी अधिकांश उनके साथ ही विचरे । भगवान का अन्तिम चातुर्मास पावापुरी में हस्तिपाल राजा की जीर्ण सभा शुक्ल शाला- दाणमण्डप में हुआ । वैशाली गणतंत्र के अधीन काशी कौशल देश के अठारह गणप्रमुख राजा जो सब जैन- भगवान के अनुयायी थे, पौषधव्रत धारण कर उपस्थित थे। भगवान की वाणी उदयानुसार सोलह प्रहर पर्यन्त चालू थी। उन्होंने अपना अन्तिम समय ज्ञात कर गणधर इन्द्रभूति गौतमस्वामी को आदेश दिया की आप निकटवर्ती ग्राम में जा कर देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध दो ! गौतमस्वामी प्रभु के अनन्य भक्त थे । वे जिसे भी दीक्षित करते प्रबल पुण्यराशि के कारण भगवान के शरण में आने के बाद केवलज्ञान प्रगट हो जाता पर आप तो चार ज्ञानधारी ही थे । उनके सम्पूर्ण कैवल्यदशाप्राप्ति में भगवान के प्रति प्रशस्त भक्तिराग ही बाधक था। आखिर चलकर वह भी छोड़ना पड़ता है, पर वह छूटता नहीं था । वे सोचते थे कि उस भक्तिरागको छोड़ दूँ तो केवलज्ञान हो सकता है। लब्धि द्वारा जान सकते थे, आत्मज्ञानी तो थे ही, फिर भी वास्तवमें देखूं तो वह भी छोड़ना ठीक नहीं हैं, क्योंकि मैं तो नरक में जानेका काम करता था, यज्ञादि हिंसा - अधर्म का पोषण करता था । निरपराध पशुपक्षी और नरबलि तक के पापकार्य मेरे द्वारा हुए हैं। गति तो मेरी नरक थी पर भगवान मुझे नरदेव बना दिया । और मोक्ष तो कोई दूर नहीं, इसी जन्म में ही होगा। फिर जब तक भगवान हैं, उनके प्रति आदरभाव - राग भाव कैसे छोडूं ! इतना भक्तिराग था । इससे संसार की उत्पत्ति नहीं होती पर सम्पूर्ण केवलदशा में यदि प्रवेश करता है तो यह भी छोड़ना आवश्यक है, अनिवार्य है। तो यह छूटता नहीं था। कई बार एकदम भावावेश में आ जाते और भगवान से प्रार्थना करते कि प्रभु! मैं क्या ऐसा ही रहूँगा !
भगवान कहते भाई, भक्तिराग भी बन्धन है, इसको छोडो तो अभी कैवल्य हो जाय तुम्हें ! गौतमस्वामी का मनमें यही उत्तर आता कि यह मुझसे नहीं बन पाता। अच्छा है यदि आप की सेवा मुझे मिले तो मोक्ष नहीं चाहिए, कहां जानेवाला है मोक्ष ? यह था भक्तिराग ! वस्तुतः भक्ति का आदर्श थे गणधर गौतम । वैष्णव आदि सम्प्रदाय में ऐसी भावना है, इस लिए उनके जीवन में कुछ नवीनता आती है। कुछ अद्भुत अनुभूतियाँ भी होने लगती हैं और मार्गानुसारिता का विकास होने लगता है। फिर कोई सम्यक् द्रष्टा ज्ञानी का सुयोग मिल जाए तो उनको ज्ञान पाना कोई दूर नहीं। इसलिए यह पात्रता का विकास भक्ति के जरिये ही होता है ।
एक बार भगवान के मुखारविन्द से यह सुना कि जो आत्मलब्धि से अष्टापद की वन्दना करे वह तद्भव मुक्तिगामी हो सकता है, औरों से यह संभव नहीं है। आत्मलब्धि द्वारा, देवशक्ति