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श्री
गुरु गौतमस्वामी ]
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दिगम्बर श्रेणी में प्रथा है वह आगे इस प्रकार की रचना होती है। वहाँ आते हैं। उन के दिलमें जो कुछ खोटे खयाल थे उन में फर्क होने लगा। मान गलित होने लगा। सोचा कि मैं आ तो गया हूँ पर उनके सामने टिकूंगा कि नहीं। इनके सामने चर्चा में हार जाऊंगा तो ? अब ऐसा संदेह होने लगा। आया हूँ, यदि वापस लौटूंगा तो भी निन्दा होगी और वापस भी नहीं जा सकता एवं आगे आने में भी हिम्मत नहीं पड़ती है। फिर भी हिम्मत करके आगे बढ़े। ये भीतर के जो कर्म दलित हैं न ? ये सब भावों के ऊपर प्रभाव डालते हैं। जीव के उस प्रकार के भाव होने लगते हैं। फिर सोचा कि यदि ये सर्वज्ञ हैं तो मेरे दिल में जो शंका है, अपने आप समाधान करेंगे। इतने में भगवानकी दिव्य ध्वनि में आवाज आई - "हे इन्द्रभूति कुशलम् " हे इन्द्रभूति ! तुमको कुशल है ?
हाँ, मेरा नाम कितना जगजाहिर है, क्योंकि मैं सर्वज्ञ हूँ, ये भी जान चुका है और मीठे वचनों से मुझे बुलाकर के मैं चर्चा न करूं इसलिये यह सारा जाल फैला रहा है। बहुत जबरा इन्द्रजालिक है। यदि उनको सर्वज्ञता है तो मेरे मन का समाधान करें। मेरे प्रश्न हैं भीतर के, कभी किसी को नहीं बतलाए, उनका समाधान दें तो मैं सर्वज्ञ मानूं और शिष्य बन जाऊं । यह भावना होते ही दिव्य-ध्वनिमें यह आवाज़ सुनने को मिली कि हे इन्द्रभूति ! तेरे दिल में जीव है या नहीं है, इस विषयमें शंका है। पर वेदपाठी होते हुए भी यह वेद में जो बताया गया है, उसका अर्थ अब तक खयालमें नहीं आता तुमको। “विज्ञानघनोऽयं आत्मा" यह आत्मा - विज्ञानघन भूत है इत्यादि रूप में ।
वेदों में जो कथन है उसका मर्म क्या है, तुम्हारे समझ में नहीं आता । उसका मर्म यह है, ऐसा कह कर उन्होंने जो आत्मा के अस्तित्व के विषय में प्रतिपादन किया, उनका समाधान हो गया । उनको खातरी हो गई, समवसरणमें दारिवल हुए। भगवान के चरणों के पास आये। ज्यों ज्यों आगे बढते हैं त्यों त्यों भगवान के माहात्म्य का प्रभाव आत्मा में पड़ता है, चित्तवृत्ति शान्त हो जाती है। होते होते उनके चरणों में नमस्कार करते-करते उनके दिल में प्रकाश हो गया है। उनकी आत्मप्रतीति परोक्ष रूप में थी, प्रत्यक्ष हो गई। जिनवन्दन में अद्भुत महिमा है पर वह आत्मा से होना चाहिए, विशुद्ध भावों से होना चाहिए। दर्शनविशुद्धि के हेतु यह भगवानकी भक्ति है और आखिर उन्होंने भगवान का शरण स्वीकार कर लिया अपने छात्रों सहित । वाद-विवाद को रख दिया एक तरफ और उनके हो गए। भगवान के सामने आपने निर्ग्रथ दीक्षा स्वीकार कर ली और उनके शिष्य बने और समवसरणमें अपने स्थान पर बैठ गए। बहुत समय हो चुका। उनके सगे भाई दो और थे। अग्निभूति और वायुभूति । अग्निभूति ने सोचा कि मेरे बड़े भाई उधर गये और शिष्य हो गये ऐसा मैंने सुना तो वह गजब की बात है । मैं उनको छुड़ा कर लाऊं और उसको परास्त करूं। ऐसी बुद्धि लेकर वह भी उधर आये। उन्होंने भी अपने हृदयमें ऐसी शंकाएँ रख छोड़ी थी जो किसी को नहीं कहीं थीं, पर उनका भी वही हाल हुआ और वे भी शिष्य बन गए। इस तरह से क्रमश ग्यारह गणधर के रूप में ग्यारह भूदेव उनके शिष्य बन गये ।
भगवान ने अपना लिया उनको ग्यारह गणधर के रूप में और उन्हें त्रिपदी का बोध दिया जिससे स्वरूप ज्ञानलब्धि पाई । पूर्वतैयारी थी, थोड़ा घटता था वह मिला गया उस लब्धि के ज़रिये । प्रत्येक गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की। यह विस्तृत संवाद सारा का सारा आत्मसिद्धि