________________
८४०]
[ महामणि चिंतामणि
एक को इसी जन्म में जैसे हमने देह धारण किया है, भविष्य में वैसा का वैसा देह प्राप्त होगा की अन्य, इस विषय में समाधान नहीं था।
एक को बंध और मोक्ष के विषय में समाधान नहीं होता था।
किसी को देवताओं के अस्तित्व का प्रतीतिभाव नहीं होता था। किसी को नरक है या नहीं, इस विषय की शंका होती थी।
किसी को पुण्य और पाप की विद्यमानता और इसका स्वीकार, विषयक शंका थी।
किसी को परलोक विषय में शंका थी और किसी को मोक्ष विषय में शंका थी। इस प्रकार ग्यारह अपने आपको सर्वज्ञ मानने वाले पण्डित शंकाशील थे, इस लिये आत्मज्ञान से वंचित रहते थे।
भगवान वहाँ पधारे, महासेन वन में और देवताओं ने समवसरण की रचना की। कोटि कोटि देव अपने विमानों में बैठ-बैठ कर के यहाँ सम्मिलित होने के लिए आ रहे हैं और नगर पर से जाते हुए ऐसा उच्चारण करते हैं कि-"जल्दी से जल्दी चलो, सर्वज्ञ को वंदना करो।" परस्पर एकदूसरे को यह संभाषण कर रहे हैं और यह बात मनुष्य नीचे है वे सुन सकें इस प्रकार कहते हैं। देवताओं को भी कोई अपूर्व शक्तियाँ हैं-वे चाहें तो अमुक व्यक्ति सुन सकें और चाहें तो कोई नहीं सुन सकें। वह देख भी सके कोई देख नहीं सकें। अमुक ही देख सकें, उनकी इच्छा हो ऐसा ही सब कुछ होने लगता है। ऐसी दिव्य शक्तियाँ हैं। तो आज का ऐसा शुभ अवसर था कि सभी समवसरण का दर्शन भी कर सके और देवताओं को प्रत्यक्ष देख सकें, उनकी वाणी, वार्तालाप सुन सकें, इस प्रकार का ही अमुक योग होता है। जब उनके साथ सम्मिलित भाव हो जाते हैं। ऊपर से विमान जाते हुए देवताओं के विमान मनुष्यों ने देखा जो यज्ञ में सामिल हैं। सभी ने देखा, तब इन्द्रभूतिने यह सुना कि चलो, सर्वज्ञ को वन्दना के लिए चलो-तो यह सुनते ही उनके दिलमें एकदम भाव, ऐसा विद्वेषभाव आ गया कि वे व्याकुल हो उठे और कहने लगे कि मुझ जैसे सर्वज्ञ की विद्यमानता में इन्द्रजालिक इन्द्रजाल फैला करके देवताओं को भी सम्मोहन कर रहा है। मनुष्य तो ठीक पर देवलोकवासी देव भी उनके इस चक्कर में फंस जावें! परास्त करूँगा, क्यो की सर्वज्ञ तो मैं ही हूँ। ऐसी भावना रख कर और अपनी शिष्यमण्डली को कहा की चलो मेरे संग। मैं अभी इस सर्वज्ञ के नाम से इन्द्रजालिक है उसको परास्त करूँगा, चलो मेरे संग। बाकी सारी यज्ञवेदी के सामने क्रियाएं हो रही है उसमें सम्मिलित हैं, पर आप वहाँ से चल पड़े। आपकी शिष्यमंडली आप की बिरुदावली. ललकारते हुए स्वागत के साथ जा रही है, उनके स्वागत के साथ। जब दूर से समवसरण को देखा, यह Rद्धि देखी, एकदम विस्मय में पड़ गया, आश्चर्यमें पड़ गया इन्द्रभूति। और यह इन्द्रजाल भी कितनी लंबीचौड़ी है। ऐसी तो हमने कभी देखी नहीं, सुनी तो जरूर है पर देखी नहीं। गजब बात है, कितना आडंबर लगाया है। खैर, मैं अभी उसको परास्त करूँगा। वहाँ समवसरण के पास पहुंचे और मन में विचार किया कि क्या यह ब्रह्मा है कि विष्णु है कि शंकर है ? साक्षात् ऐसा ही लगता है। शायद मेरी भूल हो। लगता तो इन्द्रजाल ही है। पर कभी ब्रह्मा का, कभी विष्णु. का, कभी शिव का रूप मैं देखता हूँ। गजब इन्द्रजाल है। यावत् समवसरण के पास पहुंचे।
हजार योजन का तो इन्द्रध्वज था, धर्मध्वज और यह सारौ मान स्तंभ के रूप में जो