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श्री गुरु गौतमस्वामी ]
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गणधर गौतम : एक विलक्षण व्यक्तित्व
डॉ. प्रेमसिंह राठौड़ सत्य की उत्कृष्ट जिज्ञासा, विचारों का अनाग्रह तथा हृदय की विरल विनम्रता का विलक्षण संगम, इन्द्रभूति गौतम जो भगवान महावीर के प्रथम शिष्य बने और गणधर गौतम के नाम से प्रसिद्ध हुए के जीवन का श्रमण संस्कृति में अद्वितीय रूप है।
वे भगवान महावीर की ज्ञानसाधना को अभिव्यक्ति देने में माध्यम रहे, यह कहना सर्वथा उचित होगा की गौतम जिज्ञासा थे और भगवान महावीर समाधान ।
इन्द्रभूति गौतम का जन्मस्थान मगध का छोटा गोबर ग्राम। इनकी माता का नाम पृथ्वी एवं पिता का नाम वसुभूति था। इनके दो भाइयों का नाम अग्निभूति एवं वायुभूति था। आचार्य हेमचंद्र के अनुसार वे चतुर्दश विद्याओं में पारंगत थे। वैदिक परंपरा में उस युग में चौदह विद्याओं में समस्त वाङ्गमय-चार वेद, छः वादांग, धर्मशास्त्र पुराण, मीमांसा एवं न्यास का समावेश कर दिया था। अपनी परम्परा के वे एक समर्थ वैभवशाली विद्वान थे।
वैशाख शुक्ला दशमी के दिन जुम्भिया ग्राम के बाहर ऋजुवालिका नदी के उत्तर किनारे पर श्यामाक नामक गाधापति के खेत में गोदोहिका आसन में बैठे थे और उन्हें वहीं केवलज्ञान, केवल दर्शन का अनंत आलोक प्राप्त हुआ। भगवान महावीर जंगल में थे, अतः केवलज्ञान प्राप्त होते ही उनकी प्रथम प्रवचनसभा में कोई मनुष्य नहीं पहुँच सका। देवगण उपस्थित थे, परंतु व्रत और संयम स्वीकार करके प्रथम देशना को सफल बनाना उनके लिए असंभव था। इस दृष्टि से भगवान महावीर का प्रथम प्रवचन निष्फल गया ऐसा भी कहा जाता है।
जुम्भिया ग्राम से विहार कर भगवान पावापुरी (मध्यम पावा) पधारे, जो उस समय मगध की प्रमुख सांस्कृतिक नगरी थी। भगवान की देशना सुनने को हज़ारों नर-नारी उमड़ पड़े। देवताओं ने समवसरण की रचना की। आकाश में महावीर की जयजयकार करते हुए असंख्य देवविमानों से पुष्प बरसाते हुए समवसरण की ओर आने लगे।
उसी समय आर्य सोमिल ने एक विराट महायज्ञ का आयोजन किया था। इस संपूर्ण महायज्ञ का नेतृत्व मगध के प्रसिद्ध विद्वान, प्रकांड पंडित, तर्कशास्त्री इन्द्रभूति गौतम कर रहे थे। अन्य अनेक विद्वानों के साथ, अग्निभूति, वायुभूति आदि ग्यारह महापंडित भी वहाँ उपस्थित थे। यज्ञवाटिका में बैठे विद्वानों ने आकाशमार्ग से आते हुए देवगणों को देखा तो इन्द्रभूति आदि विद्वान कहने लगे कि “यज्ञ के माहात्म्य से आकृष्ट होकर देवगण भी आ रहे हैं"-परंतु जब देवता यज्ञमंडप के ऊपर से सीधे आगे निकल गये तो उन्हें बड़ी निराशा हुई। आर्य सोमिल ने बताया कि ये देव श्रमण भगवान वर्धमान की धर्मसभा में जा रहे हैं। वे वेद, वर्णाश्रम आदि यज्ञ का निषेध करते हैं। विरोध करते हैं। आर्य सोमिल की प्रेरणा, विद्वानों की प्रशंसा एवं धर्मोन्माद के कारण वे श्रमण वर्धमान से वादविवाद करने चल पड़े। किन्तु इन सब बातों के साथ ही साथ