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[ महामणि चिंतामणि
आजीवन अनशन ग्रहण किया था, गौतम उनसे मिलने गये। अशक्त होते हुए भी आनंद ने उनके चरणों में विधियुक्त वंदन किया। चर्चा के दौरान आनंद ने कहा कि मुझे अवधिज्ञान हुआ है और विस्तृत क्षेत्र जिसको वे देख सकते थे व जान सकते थे वह बतलाया । गौतम ने कहा कि गृहस्थ को इतना विस्तृत प्रमाण वाला अवधिज्ञान नहीं हो सकता । तुम्हारा कथन भ्रांतियुक्त है। तुम इस भूल के लिये प्रायश्चित्त करो। आनंद ने कहा कि : “भगवन् ! सत्यकथन के लिये आप प्रायश्चित्त करने के लिये कैसे कह रहे हैं ?"
गौतम असमंजस में पड़ गये। भगवान महावीर के पास जाकर उन्होंने सारी बात बताई । भगवान ने कहा - आनंद का कथन सत्य है । तुमने सत्यवक्ता आनंद की अवहेलना की है अतः लौटकर उनके घर जाओ और अपनी भूल के लिए क्षमा मांगो। गौतम को जैसे ही अपनी भूल का पता चला, वे तुरन्त ही आनंदगाथापति के पास पहुँचे और अपने कथन पर पश्चात्ताप करते हुए क्षमा मांगी।
इस घटना से गौतम के व्यक्तित्व का एक महान रूप उजागर होता है - विनम्रता, बौधिक अन्यग्रह और निरहंकारवृत्ति । उनकी इस असीम विनम्रता में ही वस्तुतः उनकी महानता का सूत्र छिपा है। सत्य की स्वीकृति और सत्य का सम्मान करना गौतम का सहज स्वभाव था, ऐसा प्रतीत होता है।
सरलता का सतत बहता झरना - गणधर गौतम का व्यवहार इतना मृदु, आत्मीय और सरल था कि सामान्य से सामान्य जन, अबोध बालक भी उनकी ओर यों आकृष्ट हो जाता था जैसे शिशु माता की ओर ।
एक समय गौतम पोलासपुर नगर भिक्षा के लिए जाते हुए उधर निकल गये जहाँ राजकुमार अतिमुक्तक अपने बालसाथियों के साथ खेल रहा था । गौतमस्वामी को देखकर राजकुमार के मन में कौतुहल उत्पन्न हुआ और उनसे पूछने लगा - आप कौन हैं और किस कारण घर-घर घूम रहे हैं। गौतमस्वामी ने मधुर स्वर में कहा - हम श्रमण साधु हैं, और भिक्षा प्राप्त करने के लिए घर-घर घूम रहे हैं। राजकुमार ने पूछा- क्या आप मेरे घर भी चलेंगे ? गौतम ने हाँ कहा । अतिमुक्तक ने गौतम की अंगुली पकड़ ली - जैसे कोई मित्र की अंगुली पकड़ कर उसे अपने घर ले जाता हो। उसी प्रकार अतिमुक्तक गौतमस्वामी को अपने घर ले आया और भिक्षा प्रदान की । बाद में वह उनके साथ भगवान महावीर के पास गया। कुमार को वैराग्य हो गया और उसने प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की।
बालक के साथ बालक बन कर उसका हृदय जीतना सरल काम नहीं है । बालक द्वारा अंगुली पकड़ने पर भी गौतम स्वामी ने उन्हें झिडका नहीं, अंगुली छुड़ाने का प्रयत्न भी नहीं किया चूंकि ऐसा करने पर सम्भव था बालक के कोमल हृदय पर ठेस पहुँचे, साधु वेष के प्रति उसके मन में जो आकर्षण जगा, वह नफरत और भय में बदल जाता। गौतम की इस प्रकार की सरलता, मधुरता और स्नेहशीलता के कारण न जाने कितने खिलते हुए सुकुमार त्याग साधना व अध्यात्म-विद्या के मार्ग पर समर्पित हो गये ।
प्रेमपूर्ण आतिथ्य - श्रावस्ती में स्कंदक नामक परिव्राजक का जो कि वेदों एवं धर्मशास्त्रों