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[ महामणि चिंतामणि
एक गूढ प्रश्न - अनबुझ जिज्ञासा उनके मन को उद्बोधित कर रही थी। उनका मन श्रमण वर्धमान के प्रति खिंचने लगा और उन्हें अनुभव हुआ कि जो समाधान मुझे आज तक नहीं मिला, वह वहाँ मिल सकता है। जो प्रश्न आज तक अनछुए रहे, उनका निराकरण वहाँ हो सकता है। अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ यज्ञविधि सम्पन्न करने के पूर्व ही भगवान महावीर के समवसरण महसेन वन की ओर चल पड़े।
प्रत्यक्ष रूप भले ही अपनी परम्परा के प्रतिरोधी श्रमण भगवान महावीर की ओर वाद-विवाद की भावना को लेकर बढ़े हों, उन्हें पराजित कर अपनी विद्वत्ता एवं प्रभाव का डंका चारों ओर बजाने की भावना उनमें रही हो, किन्तु आगे की घटना स्पष्टकर देती है की उनमें सत्य की प्रबल जिज्ञासा थी जो जीर्ण-शीर्ण परम्परा मोह को क्षणभर में नष्ट करके ज्ञान का विमल आलोक प्राप्त कर धन्य हो गयी ।
उस युग में आत्मा संबंधी विचारणा में भारतीय चिन्तन में एक विचित्रता - बहुविध मान्यता एवं पूर्वापर विरोधी विचारों का ऐसा वातावरण था कि किसी भी निश्चय पर पहुँच पाना कठिन था। एक ओर आत्मा को भूतात्मक मानकर नितांत भौतिक देह से अभिन्न सिद्ध करने वाले दार्शनिक थे तो दूसरी ओर कुछ प्राणात्मक, इन्द्रियात्मक, मनोमय, ज्ञानात्मक, आनंदात्मक आदि नयों पर विशेष बल देते थे। इस चिंतन का अन्तिम स्वर था, आत्मा की ब्रह्मलय चिदात्मक स्थिति। इन दो धुवों के बीच निर्ग्रथ विचारधारा एक सामन्जस्य स्थापित - उपस्थित कर रही थी । उनमें जड़ और चेतन दोनों को भौतिक तत्त्व माना । आत्मा को चेतन माना और पुद्हटल को अचेतन-पुद्गल कर्म आदि से संपृक्त अवस्था में मूर्त तथा कर्ममुक्त अवस्था में ज्ञानादि गुणों से युक्त अमूर्त।
आत्मविचारणा की इस विषम स्थिति में इन्द्रभूति जैसे विद्वान की प्रज्ञा भी किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रही और इसी कारण कभी-कभी मन में यह प्रश्न मुख में ही अटक जाता है कि जिस आत्मा के संबंध में इतनी अटकलें लगाई जा रही हैं, वह वस्तुतः क्या है ? और कुछ है या नहीं ? यदि कुछ है तो आज तक किसी ने उस संबंध में तर्कसंगत समाधान क्यों नहीं प्राप्त किया ? इन्द्रभूति ने अन्य विद्वानों से अपने संशय का समाधान भी चाहा होगा परंतु कहीं से भी वह उत्तर नहीं मिला होगा जिसे प्राप्त करने को उनकी आत्मा तड़फ रही होगी। वे किसी भी मूल्य पर अपनी शंका का समाधान पाना चाहते थे। और आज जब श्रमण महावीर की अलौकिक महिमा, उनकी सर्वज्ञता की चर्चा और देवगण जिज्ञासा द्वारा उनकी पूजा-अर्चा का यह समारोह देखा तो विजीगीषा के साथ एक प्रबल जिज्ञासा भी अवश्य उठी होगी। वे मानों महावीर को वाद-विवाद करके वेदानुयायी बना लेना चाहते होंगे या अपनी शंका का समाधान पाकर उनका शिष्यत्व स्वीकार करने का संकल्प ले चुके हों। इस प्रकार की कुछ भावनाओं ने इन्द्रभूति को भगवान महावीर के समवसरण की ओर आगे बढ़ाया।
इन्द्रभूति अपने विचारों में खोये भगवान महावीर के समवसरण के निकट पहुँचे तो उन्होंने सुना भगवान महावीर का स्वर : “इन्द्रभूति ! आखिर तुम आ गये। इतने बड़े विद्वान होकर भी तुम अपने मन का समाधान नहीं पा सके ? आत्मा के संबंध में संदेह है ? "