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श्री गुरु गौतमस्वामी ]
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एक माता को अपनी एक मात्र संतान को खोकर जितनी पीड़ा होती है उससे कई ज्यादा पीड़ा गौतम को प्रभु से अलग होने पर होती। गौतम का प्रेम राग और आसक्ति में बदल गया कि प्रभु का अभाव एक क्षण के लिए भी सहन नहीं कर पाते। सर्वद्रष्टा भगवान ने जाना की यह अमित वात्सल्य, यह असमाप्त राग गौतम के कैवल्यपथ की एक मात्र बाधा है। अनुत्तर योगी महावीर ने अणुवीक्षण दृष्टिकोण से उन्हें समझाया-“हे गौतम!
'समसत्तुबंधुवग्गो समसुहंदुखो पंससणीद् समो।
समलोठ्ठकंचणो पुण जीविद्मरणो समो समणो ॥" जो शत्रु, मित्र, सुख-दुख, प्रशंसा-निष्ठा, मिट्टी-सोने, जीने-मरने में सम है वही श्रमण है। श्रमण शब्द का अर्थ यही है कि सत्य श्रम मिलता है। वह भिक्षा नही, सिद्धि है। सत्य की अनुभूति अत्यंत वैयक्तिक और निजी है। उसे स्वयं में और स्वयं से पाना है। वह जो स्वयं पर विश्वासी नहीं है उसके शेष सब विश्वास व्यर्थ है, जो अपने पैरों पर खड़ा नहीं, वह किसके पैर खड़ा हो सकता है ? हम अपना दीपक आप बनें, अपने ही शरण में आयें। न कहीं सृजनहार, जगत्कर्ता, जगदीश्वर या विधाता है और न कहीं भगवान, स्वयं के अतिरिक्त ऐसा कोई नहीं जिस पर हम निर्भर हो सकें। बहुत प्रतिष्ठा दी। वे बौद्धिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे। उन्होंने कहा कि धर्म को प्राचीनता के नाम पर स्वीकार या अस्वीकार नहीं किया जा सकता, उसे बुद्धि से परखना चाहिए “पन्ना समिक्खए धम्मं"। गौतमस्वामी की एक अत्यन्त विशेषता का शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि उन्होंने जिसको भी अपने करकमलों से दीक्षा दी, सबको कैवल्यज्ञान प्राप्त हो गया। योगीश्वर गौतमस्वामी के संघ में १४०० श्रमण, ३६००० श्रमणियां थीं। उनके शिष्य-परिवारों में ३१४ पूर्वज्ञान अधिकारी, १३०० अवधिज्ञानी, ७०० वैक्रियक लब्धिकारक, ७०० अनुत्तर विमान स्वर्ग में जाने वाले, ५०० मनःपर्यवज्ञान धारक थे। अप्रमत्त तपोमूर्ति गौतमस्वामी के उपदेशों से १,५६,००० श्रावक तथा ३,१८,००० श्राविकाओं ने धर्म के १२ व्रतों का आजन्म पालन करने की प्रतिज्ञा ली थी। गौतमस्वामी की वाणी से अपने समय के प्रचलित सत्, असत्, अवक्तव्य, क्रिया, अक्रिया, नियति, यदृच्छा, काल आदि वादों का यथार्थ ज्ञान व धर्म का वास्तविक स्वरूप प्रस्फुटित हुआ। कवि ने गौतमस्वामी के गुणों का वर्णन इस तरह से किया है
'परम भक्ति-गुण युक्त महोदय लब्धिनिधान महादानी।
अद्भुत अलौकिक वृत्ति पवित्र चरित्र महाज्ञानी । प्रभु के निर्वाण पश्चात् बारह वर्ष तक अविश्राम भर्मोपदेशना में गौतमस्वामी मग्न रहे। ईसा पूर्व ५१५ (विक्रम पूर्व ४५८) को संघ की व्यवस्था का भार आचार्य सुधर्मा को सौंपकर वे सिद्धत्व को प्राप्त हुए।
युगपुरुष वही हो सकता है जो अपने युग को विशिष्ट देन दे सके। इस संदर्भ में गौतम का अवदान अनुपम है। सिद्ध पुरुष महावीर के बाद संघ की जिम्मेदारी संभालने के लिए क्षमताशील गौतम नहीं होते तो जैन-धर्म का. स्वरूप इतना प्रगतिशील नहीं होता। दीर्घगामी चिन्तन, प्रौढ़ अनुभव और विलक्षण सूझ-बूझ के द्वारा तप-धर्म वृत्ति निर्वाहक गौतमस्वामी ने जो मर्यादायें बनाईं वे त्रैकालीय हो गईं। गौतम ने आत्मविजेता महावीर की सन्निधि में बैठकर