Book Title: Mahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Author(s): Nandlal Devluk
Publisher: Arihant Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 823
________________ श्री गुरु गौतमस्वामी ] [ ८२७ अर्थात् धर्मरूपी वृक्ष का मूल विनय है और फल मोक्ष है। जो व्यक्ति विनय द्वारा श्रुतज्ञान को हृदयंगम कर लेता है. आवागमन को निःशेष कर मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है। दीक्षित होने के पश्चात् उनके विद्वान साथी अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मंडित मौर्य, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य, प्रभास, एक एक करके अपनी शिष्यसंपदा (चवालिस सौ) के साथ प्रभु से प्रव्रज्या धारण करने गये। युगावतार महावीर ने उसी दिन चतुर्विध संघ (साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका) की स्थापना की एवं गौतम की महती सम्भावनाओं को दृष्टिक्षेप करते हुए प्रमुख गणधरपद पर नियुक्त किया। गौतम के आत्मा के दर्पण पर जो विकारों की, विचारों की धूल जमी थी, उसे पोंछ डालने के लिए, उन्हें पग पग पर सजग करने के लिए प्रभु उनके प्रतिबोधक बने। विचार की अस्फुरणा, बहुश्रुतता, निस्पृहता, एवं सेवापरायणता ने उन्हें प्रभु का विशेष स्नेहपात्र बना दिया। भगवान के सभी अन्तेवासियों में गौतम ही ऐसे थे जो उनके अर्थगर्भ संदेश को ही नहीं पकड़ लेते बल्कि उनकी अनुभूतियों को भी चुनौती देने का साहस कर बैठते, विचारस्वातंत्र्य के लिए प्रभु उनकी हर जिज्ञासा का समाधान कान्तासम्मित अनेकान्त भाषा में करते जिससे गौतम की ज्ञानतर्कता, सत्यनिष्ठा, निडरता, आध्यात्मिकता सहस्रगुना वृद्धिवंत हुई। इस लिए अशरण हो जाओ, सर्व शरण छोड दो। मगर इन उपदेशों के बावजूद प्रभु के प्रति ममता की वजह से गौतम चरित्र के अंतिम उत्कर्ष वीतरागता को प्राप्त करने में असमर्थ होने से परम शांति, परम मोक्ष, परम ज्ञान को नहीं पा सके। पावानगरी के शासक हस्तीपाल के रज्जुक सभागृह में बयालिसवें चातुर्मास (ईसा पूर्व ७२५ विक्रम पूर्व ४७०) के साढ़े तीन माह व्यतीत होते ही कार्तिक कृष्णा अमावास्या को अपने निर्वाण समय की पूर्वसूचना पा कर सतत्व प्रकाशक महामना महावीर ने महामुनि गौतम को बुलाकर कहा-“यहाँ से कुछ दूरी पर देवशर्मा नामक एक तत्त्वजिज्ञासु ब्राह्मण रहता है। तुम्हारा उपदेश पाकर वह प्रबुद्ध होगा, वहाँ जाओ और उसे प्रतिबोध दो।" जब गौतम भगवान के वचन को शिरोधार्य कर देवशर्मा को प्रतिबोध देने चले गये, तब संसार को अपने दिव्य प्रकाश से जगमगाने वाला महादीपक अन्तरचक्षुओं को ज्योतित कर चर्मचक्षुओं के समक्ष बुझ गया। जगत्त्राता प्रभु के निर्वाण का संवाद सुनकर गौतम स्तब्ध रह गये। एक बार राग ने तीव्र आक्रमण किया, वे अपने आप को भूल साधारण जन की भाँति विह्वल हो गये, प्रभु अभाव की कल्पना ने उन्हें हिला दिया, पीड़ित कर दिया। उनका हृदयसिन्धु व्यथा से उमड़ पड़ा। और उनकी स्थिति उन्मादक जैसी हो गई किन्तु यह सब क्षणिक था। उन्हें भगवान की शिक्षा का स्मरण हुआ "कुसग्गे जह ओस बिंदुए, कोवं चिट्टइ लंबमाणए। ____ एवं मानुसाण जीवियं समयं गोयम! मा पमाये ॥" (अर्थात् हे गौतम! जैसे तृण की नोंक पर ओस की बूंद थोडे समय तक टिक सकती है वैसे ही शरीरधारी का जीवन है। अतः थोडे समय के लिए भी प्रमाद मत कर ।) ऐसा महाज्ञानी और श्रुतसागर का पारगामी तत्त्वद्रष्टा शोक नहीं कर सकता। गौतम तत्काल मुड़े, भगवान की वीतरागी प्रतिभा उनकी आँखों के सामने आ गयी। जैसे उनका राग क्षीण हुआ और वे संपूर्ण वीतरागता को प्राप्त हुए, वैसे ही कैवल्य ने उनका वरण किया। अब वे प्रभु के साथ अभिन्न हो गये। उन्हें याद आया जब प्रभु ने कहा था कि हे गौतम! हम दोनों एक दिन एक जैसे हो

Loading...

Page Navigation
1 ... 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854