Book Title: Mahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Author(s): Nandlal Devluk
Publisher: Arihant Prakashan

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Page 821
________________ श्री गुरु गौतमस्वामी ] यात्रा अहंकार से सर्वकार एवं ममत्व से समत्व की ओर **************** - श्री नरेन्द्रकुमार रामचन्द बागरा स्वर्णिम प्रभाव की सौंदर्यमयी प्रभा मध्यम पाग के महसेन उद्यान के क्षितिज पर अपनी सम्पूर्ण प्रभाओं सहित विराजमान थी । महाभिनिष्क्रमण पश्चात् ध्यान और संयम की साधना करते हुए बारह वर्ष छह मास बीत गये, वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपराह्नकाल में जांभियाग्राम के ऋजुवालुका नदी के उत्तरी तट पर महाश्रमण महावीर को परम तत्त्व उपलब्ध हुआ । कैवल्यप्राप्ति होते ही सर्वज्ञाता प्रभु ने जाना कि मध्यमा नगरी (वर्तमान पावापुरी) में सोमिलार्य ब्राह्मण द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में देश-देशांतरों के बड़े बड़े विद्वान आमंत्रित हो कर आये हैं। त्रैकाल्य काल के रमणदेव को यह प्रसंग अपूर्व लाभ का जान पड़ा, यह सोचकर कि यज्ञ आये ब्राह्मण प्रतिबोध को प्राप्त होंगे और मेरे धर्मतीर्थ के आधारस्तंभ बनेंगे, बारह योजन चलकर भगवंत मध्यमा पहुंचे। महसेन उद्यान में इन्द्रियजेता महावीर ने बिना किसी गणधर की उपस्थिति में एक प्रहर तक प्रवचन ( दूसरा समवसरण ) किया । “यथा वृक्षस्थ संपूण्पितस्य दूराद् गन्धो वाति, एवं पुणस्य कर्मणो दूराद् गन्धो वाति ।" अर्थात् जैसे फूले हुए वृक्ष की सुगंध दूर दूर तक फैल जाती है वैसे ही पवित्र वाणी व कर्म की सुगंध दूर तक फैल जाती है। चरम तीर्थंकर की धर्मदेशना की चर्चा समस्त नगर में फैल गई। मगध देश के गुव्वर गाँव के पिता वसुभूति एवं माता पृथ्वी की संतान इन्द्रभूति नामक गौतमगोत्रीय प्रकाण्ड विद्वान और सर्व विद्याओं के पारगामी ज्ञाता भी आर्य सोमिल के यज्ञमें संम्मिलित थे । १०४ [ ८२५ गोत्तेण गोदमो चिप्पो चाउव्वेय-संडगवि । णामेण इंद्रभूभूदित्ति सीलवं बझणुत्तमो ॥ (धवला 9 ख. पृ. ६५) जन्मश्रुति है कि विद्या विनय देती है, मगर प्रतीति यह है कि विद्या अहंकार बढ़ाती है। अनेकान्त दृष्टि से दोनों की बातें सत्य हैं। आत्मविद्या अहं को मिटाती है और लौकिक विद्या विनम्रता को । इन्द्रभूति को अपने ज्ञान का अभिमान था, विद्वान होने का अहंकार था, इस अहंकार ने उनकी आँखो पर पड़र्दा डाल दिया था, वे भूल गये थे कि "मैं हूँ" यह समझना सब से बड़ी मूर्खता है। विनयेन बिनाचीर्णम अभिमानेन संयुक्तम् । महच्चापि तपो व्यर्थम् इत्येतद्वर्धायताम् ।। विनय-रहित और अभिमान सहित किया हुआ तप मुक्त होकर ही चेतना व्यक्ति से ऊपर उठती है, समष्टि में दिग्भ्रांत होकर अथाह समुद्र की उत्ताल तरंगो के थपेड़ों में भी व्यर्थ है । 'मैं' की कारा से मिलती है। जैसे कोइ जलपोत भटक रहा हो वैसे ही इन्द्रभूति

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