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[ महामणि चिंतामणि
बोद्धिक दासता व शास्त्र और धर्म के नाम पर अंध परम्पराओं से घिरे हुए थे । यही इन्द्रभूति युगधाता महावीर के प्रथम शिष्य गणधर गौतमस्वामी के रूप में जैन परम्परा के एक ज्योतिपुंज बनकर सामने आये। कैसे हो गया यह परिवर्तन ? कैसे एक अविवेकी क्रियाकाण्डी ब्राह्मण के लिये केवली बनना संभव हुआ ? अपने सर्वोन्मुख समर्पण, संकल्प और समाधान से व्यक्ति कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है इसका प्रत्यक्ष निदर्शन बने इन्द्रभूति । उनकी इस यात्रा का शुभारंभ हुआ ईसा पूर्व ५५६ (विक्रम पूर्व ५०० ) उस प्रभात को, जब भाग्य ने उन्हें जिन चक्रवर्ती महावीर के समक्ष खड़ा कर दिया।
ज्ञानामद से उन्मत्त इन्द्रभूति वीतरागी प्रभु को पराजित कर अपनी प्रतिष्ठा बढाने के उद्देश से जब महसेन उद्यान पहुँचे तब उन्होंने देखा कि महावीर के श्वास श्वास से, रोयें रोयें से, प्राणों के कण कण से एक संगीत, एक गीत, एक आह्लाद, एक सुगंध, एक आलोक, एक अमृत की प्रतिपल वर्षा हो रही है। कैवल्यज्योति महावीर ने उन्हें देखते ही कहा- इन्द्रभूति ! तुम्हें आत्मा के अस्तित्व में संदेह है ? भगवंत की हृदयस्पर्शी वार्ता सुनकर इन्द्रभूति स्तब्ध रह गए, उनके मन में छिपे जीव- अजीव के संदेह का उद्घाटन एवं आत्मा की व्याख्या ( उत्पन्नेइवा विगमेई वा धुवेई वा) कर प्रभु ने उन्हें पराजित ही नहीं किया, आकर्षित भी किया। जो समझाने आये थे वे स्वयं समझ गये । प्रभु के अन्तर में वैराग्य की जो पावन धारा प्रवाहित हो रही थी, गौतम को प्रभु की अमृतमय वाणी में उसका शीतल सौम्य स्पर्श सहज अनुभव हुआ, मानवीय आस्था का नवीन उद्घोष सुनाई दिया जिसने उनके अन्तर को ललकारा, झकझोरा, प्रतिबोध किया । लौहचुंबक जैसे लोहे को खींचता है वैसे ही भगवान की प्रत्यक्षानुभूति से इन्द्रभूति का मन खिंचता चला गया और प्रभु के त्याग - वैराग्य-तप के तेज के सामने उनका आस्थाहीन ज्ञान का विवेकशून्य क्रियाकाण्ड का विश्वास जर्जर होते ही फलों से लदी हुई शाखा के समान प्रभुचरणों में नतमस्तक हो गये । क्षण में ही इन्द्रभूति के अन्तर में परिवर्तन आया कि इस निर्वचनीय चैतन्यसागर में अपने अहं को लीन कर आध्यात्मिक दर्शनों की चूडान्न महिमा को प्राप्त करूँ। " णमोत्थुणं समवस्स भगवओ महावीरस्स सहस्संबुद्धस्स" ( इसी घटना को कुछ इतिहासकारों ने रूपात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। प्रभु की प्रथम धर्मदेशना सिर्फ देवता लोग के समक्ष मनुष्य की अनुपस्थिति में संपन्न हुई । केवली होने पर भी प्रभु की वाणी नहीं खिरी तो देवराज इन्द्र को चिन्ता होने लगी कि प्रभु की धर्मदेशना निष्फल न हो जाए। इसका कारण जानकर देवेन्द्र इन्द्रभूति के पास गये और युक्ति से उन्हें ज्योतिर्धर प्रभु के समवसरण में ले आये। जब गौतम के अहंकार ने शुद्ध आत्मकाम का रूप ले लिया, जब अहम् ही सोहम् बन गया तो महान आध्यात्मिक धार्मिक क्रांति का अग्रदूत बनने का मार्ग निर्बाध हो गया ।)
विचारधारा के बदलते ही, अन्तस्तल के परिवर्तन होते ही जीवनधारा भी परिवर्तित होने लगती है। दीर्घपज्ञ महावीर के चरणों में आ कर गौतम विनम्र बने, प्रबुद्ध और चैतन्य बने । प्रभु का प्रथम उपदेश था
' एवं धम्मस विणओ, मुलं परमो से मुक्खो । जणे कितिं सुयं, सिग्ध नीसेसं चाभिगच्छई |