Book Title: Mahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Author(s): Nandlal Devluk
Publisher: Arihant Prakashan

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Page 814
________________ ८१८] [ महामणि चिंतामणि (क) सूत्र कृतांग-अध्ययन ७-'नालंदीय'- में पार्धापत्य अणगार उदक (उदय) पेढ़लपुत्र का गौतमस्वामी के साथ 'प्रत्याख्यान' संबंधी संवाद है। गौतमस्वामी काल और पर्याय के अनुसार 'प्रत्याख्यान' विषयक तर्कों का समाधान करतें हैं। उदक पेढ़ालपुत्र संतुष्ट होकर भगवान महावीर के संघ में पुनर्दीक्षित होते हैं। (ख) उत्तराध्ययन का दशवां अध्ययन परा का परा गौतम गणधर को लक्ष्य करके (भविलोक के प्रतिबोधनार्थ) कहा गया है। संसार और शरीर की नश्वरता का स में भावभरा वर्णन है। सतत् जागृत एवं अप्रमत्त रहने की चेतावनी है। महावीर कहते हैं : "गौतम ! जैसे समय बीतने पर वृक्ष का सूखा हुआ सफेद पत्ता गिर जाता है, उसी प्रकार यह मनुष्य का जीवन है। अतः गौतम! क्षण (समय) मात्र का भी प्रमाद मत कर।" "कुश-डाभ के अग्रभाग पर टिके हुए ओस के बिन्दु की तरह यह मानव जीवन क्षणिक है। मनुष्य जीवन दुर्लभ है। अल्पकालीन आयुष्य में ही कर्मरज को दूर कर देना है। कर्मों का विपाक अति तीव्र है। जीवन पानी के बुलबुले की तरह है। अनन्त योनियों में असंख्य काल भटक भटक कर यह मानवजन्म प्राप्त हुआ है। आर्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा और आचरण तुझे प्राप्त हुए हैं-इन्हें न खो। "तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं, पाँचों इंद्रियाँ शक्तिहीनता को प्राप्त हो रही हैं। शरीर कभी भी रोगों से आक्रान्त हो सकता है। अतः हे गौतम! क्षण मात्र का भी प्रमाद न कर। "जैसे शरदकालीन कुमुद (चंद्रविकासी कमल) पानी से लिप्त नहीं होता, उस प्रकार तू भी अपना सब प्रकार का स्नेह त्याग कर निर्लिप्त बन । "कंटकाकीर्ण पथ छोड़कर तू राजमार्ग पर आ गया है। अतः दृढ श्रद्धा से इस पथ पर चल! तू विशाल महासागर को पार कर गया है। अब तीर के निकट पहुँच कर में खड़ा है?।। सागर को पार गरने की शीघ्रता कर। तू देहमुक्त सिद्धत्व को प्राप्त कराने वाली भाभि पर। आरूढ़ होकर क्षेम, शिव और अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त करेगा। अतः हे गौतम! बाप पर का भी प्रमाद न कर।" इसी दसवें अध्ययन की ३७ वी गाथा, उपसंहार में कहती है-"अर्थ और पद से सुशोभित एवं सुकथित सर्वज्ञ (भगवान महावीर) की वाणी को सुनकर रागद्वेष का छेदन कर गौतम सिद्धिगति को प्राप्त हुए।" (ग) उत्तराध्ययन-२३- 'केशी-गौतमीय' अध्ययन धर्म-दर्शन के गूढ तत्त्वों-रहस्यों से परिपूर्ण है, कुमार केशी श्रमण (केशी-गणधर) भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा के चतुर्थ पट्टधर शिष्य थे। 'राजप्रश्नीय-सूत्र में केशी गणधर द्वारा राजाप्रदेशी के आत्मा-संबंधी संदेहों का निवारण और राजा प्रदेशी के जैनधर्म अंगीकार करने का सुन्दर वर्णन है) ___ गौतमस्वामी भगवान महावीर के प्रथम गणधर थे। एक बार दोनों गणधर अपने अपने शिष्यसमुदाय के साथ श्रावस्ति-नगरी में आये। भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर की परंपराओं

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