________________
श्री गुरु गौतमस्वामी ]
[ ८२१
यह केशी-गौतम संवाद युगयुग के सघन संशयों एवं उलझे विकल्पों का सही समाधान प्रस्तुत करता है। गौतमस्वामी की महान प्रज्ञा को केशीकुमार जैसे गणधर और अवधिज्ञानी-श्रमण नमन-वंदन करते हैं। इस प्रकार के समत्वलक्षी परिसंवादों से ही श्रुत एवं शील का समुत्का होता है। महान् तत्त्वों के अर्थ का विशिष्ट निश्चय होता है
(घ) 'जीवाभिगम-सूत्र' में भगवान महावीर और गौतमस्वामी के संवाद-रूप में जीव-अजीव के भेदों-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन है।
श्रमण भगवान महावीर का अंतिम चातुर्मास पावा में राजा हस्तिपाल की रज्जुकशाला में हुआ। अनेक राजा वहां एकत्रित थे। राजा पुण्यपाल के दुःस्वप्न तथा पंचम व छठे आरे के दुःखों का प्रभु ने कथन किया। शकेन्द्र सारा आयुवृद्धि की प्रभु से प्रार्थना। भस्मक ग्रह का प्रवेश। आयुवृद्धि की असमर्थता। भगवान ने पुण्य व पाप-विपाक के ३६-३६ अध्ययन कहे। यह उनकी अंतिम देशना थी। .
भगवान को अपनी निर्वाण-वेला का ज्ञान था। मणधर गौतम के (अपने प्रति) प्रशस्त राग को नष्ट करने के उद्देश्य से गौतम को निकटवर्ती गाँव में देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के उद्देश्य से प्रभु ने भेज दिया। कार्तिक वदि अमावास्या की अर्घरात्रि को प्रभु का निर्वाण हुआ। वे सिद्ध, मुक्त और शिव हुए। जन्म-मरण की श्रृंखला को तोड़कर शाश्वतस्थान में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख (अव्याबाध आनंद) और अनंतवीर्य सहित अनाबाध रूप में अवस्थित हुए, कृतकृत्य हुए। राजाओं ने शवउद्योत का अभाव जानकर द्रव्य-उद्योत किया। दीपावली-पर्व की उत्पत्ति और शुरूआत
देवशर्मा को प्रतिसावत कर आते हुए गौतमस्वामी ने भगवान के निर्वाण के समाचार सुने। गौतम के दुःख और खेद का पारावार नहीं है। "हे भगवान मेरे आराध्य देव !! यह आपने..क्या विधासघात किया? आपने मुझे जानबुझकर अलग कर दिया। अब मेरा कौन सहारा है ? हे करुणा निधान ! हे स्वामी! आपने मुझे निराश्रित-निराधार कर दिया। अब जगत को ज्ञान का प्रकाश कौन देगा? लोक को अज्ञान-रूप निबिड अंधकार से कौन त्राण दैगा ? हे करुणावाहित ! आप बड़े निष्ठुर हैं। मैं जीवनभर छाया की तरह आपके साथ रहा, अब आप मुझे मैंझधार में छोड़ कहाँ चले? नाथ! अब मैं किससे प्रश्न पूछकर समाधान पाऊँगा? आप की ज्ञानरूपी शीतल छाया इस लोक से उठ गई है। हे मेरे स्वामी! शासन के किरतार !! अब लोग अज्ञानतापमें जल
• मरेंगे। उनका त्राण कहाँ है? हे दयानिधान! भविजीवों के तारक! आप मुझे कैसे भूल गये? आपके बिना मैं और संपूर्ण जिनशासन आज अनाथ हो गया है
गौतमस्वामी दहाड़ मारकर रोते हैं, विलाप करते हैं। इस रुदन के साथ ही गौतम का स्नेहराग, भगवान के प्रति प्रशस्तराग समाप्त हो जाता है।-"कैसे नाथ ? कैसा बन्धन ? उनके प्रति कैसा राग? वे तो वीतराग थे, सर्वज्ञ थे। मेरा स्नेह एक-पक्षीय था। उन्होंने मुझ से अनुबंध किया था, आधासन दिया था कि वे और मैं एक ही शाश्वत धाम में अनंतकाल तक अनंत सुख में साथ साथ रहेंगे। एक वीतरागी से कैसा प्रेम? कैसा मोह ? यह आत्मा तो अनादिकाल से