Book Title: Mahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Author(s): Nandlal Devluk
Publisher: Arihant Prakashan

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Page 799
________________ श्री गुरु गौतमस्वामी ] [ ८०३ wooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooomme amooooooooooooooooooooooooooooooom भगवान के द्वारा अपना नाम सुनकर इन्द्रभूति आश्चर्यचकित हो गए। 'अरे, यह तो मुझे पहचानते हैं। देख, कितने प्रेम पूर्वक बुला रहे हैं।' परंतु तभी अभिमान ने पुनः एक धक्का दिया। 'मुझे कौन नहीं जानता, भला सूर्य भी कभी छुपा रह सकता है? यदि ये मेरे मन की शंका का समाधान कर दे, तब मैं इन्हें तीर्थंकर मानूंगा।" इन्द्रभूति गौतम महापंडित थे, सैकडों शिष्यों के गुरु थे। फिर भी मन ही मन उद्विग्न थे। एक शंका उनके मन शल की तरह चभ रही थी। अपने अहंकार के कारण किसी से समाधान भी नहीं कर सकते थे। उन्होंने समवसरण में प्रवेश किया। "प्रियवर गौतम! तेरे मन में जीव-आत्मा के अस्तित्व के विषय में शंका है।" त्रिलोक ज्ञानी भगवान ने इन्द्रभूति का संदेह प्रकट किया। "परंतु हे गौतम! मैं कहता हूं कि जीव नामक तत्त्व है और वह शाश्वत-स्वतंत्र है। यदि तुम मानते हो कि संसार में ज्ञान है, तो ज्ञान का आधार, ज्ञान का स्वामी, ज्ञान को ग्रहण करने वाला जीवात्मा भी अवश्य है।" “यदि आत्मा विद्यमान है तो दिखती क्यों नहीं है ?" महापंडित इन्द्रभूति गौतम ने विनम्र भाव से पूछा। "जिस प्रकार दूध में घी, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि, पुष्प में गंध होते हुए भी प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते हैं, उसी प्रकार शरीर के प्रत्येक प्रदेश में आत्मा व्याप्त है। इतना ही नहीं, अपितु प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम रूपी प्रयोग करने पर आत्मा प्रकट हो सकती है। अतः आत्मा-जीव की विद्यमानता स्वीकारना चाहिए।" भगवान महावीर ने स्पष्टीकरण किया। महावीर प्रभु के श्रीमुख से निसृत वाणी का अमृतपान इन्द्रभूति दतचित्त हो करने लगे। उनके सारे संशय दूर हो गए। वे महापंडित तो थे ही, साथ ही सत्य के पक्षपाती भी थे। उन्होंने अपना मिथ्या अहंकार और आडंबर त्याग कर महावीर के चरणों में समर्पित होने की ठान ली। गौतम इन्द्रभूति गद्गद् स्वरों में बोले "हे देव! आपका कथन यथार्थ है। आप महाज्ञानी और सर्वज्ञ हैं। आपकी भगवती वाणी से मेरा वर्षों का संदेह दूर हुआ है। मैं आपको नतमस्तक हूँ। आप मेरा और मेरे पाँचसो शिष्यों का स्वीकार कर, अपने चरणकमलों की सेवा प्रदान कीजिए। हमारा उद्धार कीजिए।" प्रभु महावीर ने गौतम को संयमरल प्रदान कर अपने प्रथम शिष्य के रूप में प्रस्थापित किया। उसके पश्चात् उसी दिन अन्य दस महापंडित ब्राह्मणों ने भी अपने शिष्यों के साथ भगवान के पास संयम अंगीकार किया। वह पावन दिन था वैशाख शुक्ला एकादशी का। पंडितप्रवर अपने ज्ञान का सारा अहंकार भूलकर, गुरु महावीर की सेवा और सत्य की शोध में लग गए। उन्होंने अपने अहं का विसर्जन कर अहँ की उपासना प्रारंभ कर दी। गुरू का विनय, गुरू की भक्ति उनका जीवनमंत्र बन गई। उनके हर साँस में महावीर का ज्ञान चलने लगा। उनकी जिज्ञासावृत्ति ने उन्हें नम्रतातिनम्र बना दिया। मन में उठती कोई भी जिज्ञासा का समाधान भगवान के पास वे बालक की भांति करते थे। जिसे श्रवण कर अन्य प्राणी भी लाभान्वित

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