Book Title: Mahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Author(s): Nandlal Devluk
Publisher: Arihant Prakashan

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Page 810
________________ ८१४ ] [ महामणि चिंतामणि | हैं। फिर शुरू होती है महावीर व गौतम की क्रांतियात्रा और धर्मचक्र का प्रवर्तन । भगवान के निर्वाण समय तक एक छायामूर्ति की तरह गौतम उनके साथ संबद्ध रहते हैं, महावीरमय होकर विचरण करते हैं। नोट-[गणधरवाद का विस्तृत वर्णन 'कल्पसूत्र' और 'विशेषावश्यक भाष्य'-(श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण रचित) में वर्णित है। सूत्रकृतांग आगम में भी आर्द्रकुमार के अध्ययन में अच्छा वर्णन गणधरवाद के लिए मिलता है। रायपसेणी में केशी-प्रदेशी संवाद गणधरवाद की पुष्टि करता है भगवान महावीर का प्रथम श्रावक था 'आनन्द'। आनन्द ने भगवान के पास श्रावक के १२ व्रत अंगीकार किये। वह कट्टर श्रमणोपासक था। क्रमशः उसने श्रावक की ११ प्रतिमाओं की आराधना की, और पौषध शाला में ध्यान में अवस्थित हो गया। कर्मों की निर्मलता और क्षयोपशम से उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। वह पूर्व-पश्चिम-दक्षिण दिशा में ५००-५०० योजन पर्यंत लवण समुद्र का क्षेत्र, तथा उत्तर में हिमवान वर्षधर पर्वत का क्षेत्र देखने-जानने लगा। ऊर्ध्व में प्रथम देवलोक-सौधर्मकल्प तथा अधोदिशा में प्रथम नरक भूमि रत्नप्रभा में ८४००० वर्ष की स्थितियुक्त लोलुपाच्युत नामक नरक तक देखने-जानने लगा। भगवान महावीर गणधर गौतम और मुनिसमुदाय के साथ वाणिज्यग्राम पधारे। गुरु गौतम गोचरी के लिए जब नगर में गये, तो आनन्द के अवधिज्ञान की लोकवार्ता सुनी। गौतम आनन्द के घर गये। आनन्द तपस्या से कृश व उठने में असमर्थ हो गया था। उसने हाथ जोड़कर गौतम से कहा-"भंते! आप मेरे निकट आने की कृपा करें, ताकि मैं आपके चरणों में वंदन कर सकूँ।" गौतम आनन्द के पास जाते हैं। अति विनीत भाव से आनन्द गौतम को वन्दन करता है। आनन्द ने हाथ जोड़कर कहा - "भंते ! क्या श्रावक को अवधिज्ञान हो सकता है?" गौतम ने कहा-“हो सकता है।" आनंद-प्रभो ! मैं चारों दिशाओं में ५००-५०० योजन, ऊर्ध्व में प्रथम स्वर्ग तथा अधोदिशा | में प्रथम नरक तक देख सकता हूँ।" गौतम-“आनन्द! श्रावक को इतना विशाल अवधिज्ञान नहीं हो सकता। तुम इस का प्रायश्चित्त करो।" आनंद-"भगवन् ! क्या जिनशासन में सत्यकथन करने वाले को प्रायश्चित्त करना होता है या मिथ्या कथन करने वाले को ?" गौतम ने तुरंत कहा-“आनंद! असत्य कथन करने वाले को ही प्रायश्चित्त करना होता है।" आनंद-"तो भंते! प्रायश्चित्त आप ही कीजिए। मैंने तो सत्य कहा है।" विषण्ण मन से गौतम सीधे भगवान महावीर के पास पहुंचते हैं। सभी बातें विस्तार से बता कर गौतम भगवान से पूछते हैं-"भंते! क्या आनंद सच्चा है? क्या मुझे ही मिथ्याकथन के

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