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श्री गुरु गौतमस्वामी ]
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अपने भाई अग्निभूति व वायुभूति से विचारविमर्श कर अपने ५०० शिष्यों के साथ, अपनी जयजयकार कराते हुए इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के समवसरण की ओर जाते हैं। दूर से ही दृष्टि पड़ती है। समवसरण के मध्य में पूर्व दिशा की ओर उन्मुख भगवान महावीर विराजमान हैं। देशना चल रही है। ज्यों ज्यों समवसरण सन्निकट आता है, भगवान का तेजस्वी रूप (तेजोमय भामण्डल युक्त) दृष्टिगोचर होता है।-"क्या अपूर्व छटा है? असंख्य जनमेदिनी एकत्रित है। क्या तेज है? कितना शान्त, आकर्षक, मोहक, तेजस्वी मुखमण्डल है ? देह तो जैसे शुद्ध सोने से गढ़ी है। रोम-रोम से प्रकाश फूट रहा है।.....क्या हो गया है मुझे? लोहचुम्बक सा खिंचा जा रहा हूँ। मेरा तेज, मेरा ज्ञान, मेरी विद्या-सब जैसे निचुड़ रहे हैं। क्या मेरा गर्व खण्डित हो कर चूर-चूर हो जायेगा? हे भगवान मैं कहाँ आ गया? अपने भाइयों के आगे मैंने कितनी डींगें हाँकी थीं? लौटकर उन्हें कैसे मुँह दिखाऊंगा? वाद तो क्या, उसके सम्मुख आँख से आँख मिलाकर भी नहीं देख सकता! क्या यह सचमुच सर्वज्ञ हैं ? यह कैसा इन्द्रजाल/जादू है, यह कैसा संमोहन-वशीकरण है? पानी-पानी हुआ जा रहा हूँ।.....पर, नहीं, ऐसे मैं भी सहज में नहीं झुकने वाला। देखू, यह मेरी शंका बिना पूछे बता सकता है या नहीं?"
इन्द्रभूति गौतम समवसरण की सीढ़ियों पर चढ़ रहे हैं। सर्वज्ञ भगवान महावीर की दृष्टि से कुछ भी अनजान, कुछ भी अछूता नहीं है। महावीर संबोधित करते हैं – “भले आये इन्द्रभूति गौतम, तुम्हारा स्वागत है।" गौतम सोचते हैं “हैं! यह क्या? यह तो मेरा नाम भी जानता है।......नाम क्यों नहीं जानेगा? मैं तो भारत-प्रसिद्ध पंडित हूँ।" भगवान की दिव्य, गुरु-गंभीर वाणी फिर गूंजती है-"इन्द्रभूति! तुम्हारे मन में यह शंका है कि जीव (आत्मा) है या नहीं? यदि है तो जीव का पंचभूतों से अलग अस्तित्व है या नहीं? लेकिन इन्द्रभूति, तुम्हारी शंका अस्थान है, अनुचित है। वेदों में आत्मा की सिद्धि स्पष्टतया दर्शायी गई है। तुमने वेद-श्रुतियों का अर्थ
हीं किया।" फिर भगवान वेदों से उद्धरण देकर गौतम को सटीक अर्थ समझाते है। आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व, आत्मा और शरीर में भेद, आत्मा की सिद्धि के हेतु, व्युत्पत्तिमूलक हेतु, जीव की अनेकता, स्वदेह-परिमाण, नित्यानित्यता, जीव भूतधर्म नहीं-स्वतंत्र द्रव्य है, तथा सर्विज्ञता/मोक्ष का संभाव्य परिणाम-आदि समाधानों से इन्द्रभूति गौतम की शंकाएँ निर्मूल हो जाती हैं। उनका हृदय एक अपूर्व आह्लाद, आनंद एवं संतुष्टि से भर उठता है। उनका गर्व विगलित | हो गया है। वे विनय और नम्रता की प्रतिमा बन गये हैं।
हाथ जोड़कर नतशिश गौतम कहते हैं-"भन्ते! सही है, यही अर्थ है जो आपने श्रीमुख से फरमाया है। मैं निःशंक हुआ, मैं परम संतुष्ट हुआ। आपको बार-बार प्रणाम है, अभिवादन है, अभिवंदन है। प्रभो! मैं आपकी शरण हूँ, मैं आप का दास हुआ।"
इन्द्रभूति गौतम अपने ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पावन चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर देते हैं, दीक्षित हो जाते हैं। महावीर उन्हें अपना प्रथम गणधर नियुक्त करके 'उपन्नेइवा, विगमेइवा धुवेइवा' की त्रिपदी देते हैं। फिर क्रम से उनके दस साथी अपने अपने शिष्यसमुदाय के साथ, अपनी अपनी शंकाओं का समाधान पाकर भगवान के गणधर बनते हैं। ११ गणधर व ४४०० मुनियों की दीक्षा उसी समवसरण में हो जाती है। चन्दनबाला प्रमुख साध्वी व (अनेक) श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ-तीर्थ का प्रवर्तन कर महावीर 'तीर्थंकर' बन जाते