________________
श्री गुरु गौतमस्वामी ]
गौतम गणधर की महानता
[ ८११
- श्री पुखराजजी भण्डारी ।
'सर्वारिष्ट प्रणाशाय सर्वाभिष्टार्थ दायिने । अनन्तलब्धि निधानाय, गौतमस्वामिने नमः ॥ '
प्रातःस्मरणीय श्री गौतमस्वामी, चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के प्रथम गणधर, चौदह पूर्व के ज्ञाता, अवधिज्ञानी, प्रकाण्ड पण्डित, सर्वाक्षर-प्रतिपाती, तेजस्-लब्धि आदि अनेक लब्धियों के धारक, घोर उग्र- दीप्त तपस्वी, जिनशासन के मेरुदण्ड तथा भगवान के समवसरण में लोकोपकारी जिज्ञासाओं के पृच्छक व प्रकाशक थे। भवि जीवों के लिए श्री गौतमस्वामी परम उपकारक थे । आगमों में वर्णन है कि ३६००० प्रश्न भगवान महावीर से गौतम ने तत्त्वसंबंधी पूछे थे, और भगवान ने कृपा करके उनके स्पष्टतया समाधान दिये थे।
वीशस्थानक तप का सम्यक् आराधक तीर्थंकर नामकर्म का बंध करता है । उसमें 'गोयम' पद भी प्रमुख है। यह गौतम गणधर की सिद्धि-दायकता को सिद्ध करता है। 'गुरु गौतम' कहकर संपूर्ण जैनजगत उन्हें अन्तर श्रद्धा से याद करता है। नवकारवाली के साथ 'गौतमस्वामी की माला' भी अनेक भक्त नित्य प्रति फेरते हैं। अक्षीण महानस् और क्षीरास्रवलब्धि के धारक गुरु गौतम को याद करते ही प्रत्येक संकट दूर हो जाता है। उनके बारे में कई पद प्रसिद्ध हैं, जिन्हें चतुर्विध संघ अत्यंत श्रद्धा से गाता व बोलता है। कई मंदिरों में कमल पर बिराजमान गुरु गौतम की मनोहर मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित हैं, जिन्हें भक्तगण सदैव भक्ति-सुमन अर्पित करते हैं ।
गुरु गौतम सात हाथ लम्बे, अत्यंत गौर (स्वर्ण) वर्ण एवं अत्यधिक सुन्दर थे । वे नम्रता की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। उनका संपूर्ण जीवन अपने गुरु भगवान महावीर को समर्पित था । वे छाया की तरह जीवन भर भगवान के साथ लगे रहे। कई इतर धर्मियों को प्रभावित कर, जिनशासन में लाये, और उन्हें भगवान महावीर के पास दीक्षित करवा दिया। लोकसंबंधी, आत्मा संबंधी, तत्त्व संबंधी, आचार संबंधी, कर्म संबंधी और मोक्षसंबंधि हज़ारों प्रश्नों की जिज्ञासा करके; भगवान के श्रीमुख से मोक्षमार्ग का प्रकाशन करवा कर भवि जीवों का अत्याधिक उपकार किया । अपने सम्मोहक व्यक्तित्व, असाधारण ज्ञान, लोकोपजन्य आकर्षण और संपूर्ण गरिमामय जीवन को उन्हों भगवान महावीर पर निछावर कर दिया था। वे स्वयं 'कुछ नहीं' बन गये थे। महावीर रूपी समुद्र की एक बूँद भी वे अलग से नहीं थे, अपितु वे महावीर रूप समुद्र के प्रतिरूप प्रतिच्छाया, स्वयं समुद्र ही थे । स्वयं उनका व्यक्तित्व उन्होंने अलग से कहीं प्रतिभासित होने नहीं दिया । निरहंकारमय जीवन जीते हुए भगवान की एक की संख्या के आगे वे अनन्तशून्य बन गये थे। पर छोटी बड़ी बात का, वादविवाद का मर्म जानने पर भी, नन्हे बच्चे की तरह आ कर भगवान से उन्होंने जिज्ञासा की पुष्टि करवाई। हर सफलता, हर गौरव, प्रत्येक शिष्य, प्रत्येक श्रावक लाकर उन्होंने भगवान को सौंप दिया। वे स्वयं कुछ भी नहीं थे, गात्र नामशेष थे, भगवान ही उनके आराध्य थे, सर्वस्व थे ।